अविस्मरणीय कैलाश मानसरोवर यात्रा 2014 :: अध्यात्म पथ


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June 20th 2014
Published: May 13th 2015
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कैलास-मानसरोवर यात्रा

Estimated Route

।।ॐ नमः शिवाय।।




।। परम रम्य गिरिवर कैलासू, सदा जहाँ शिव उमा निवासू।।



कैलाश मानसरोवर को भगवान शिव का प्रिय स्थान कहा गया है. इसे भगवान शिव-पार्वती का घर माना जाता है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार यह स्थल शिव का स्थायी निवास होने के कारण से यह स्थान सर्वश्रेष्ठ पाता है. मानसरोवर को 'कैलाश मानसरोवर तीर्थ' के नाम से जाना जाता है

कैलाश पर्वत, जिसकी उँचाई 6740 मीटर है, हिमलयी अवरोध के उत्तर में स्थित है, जो पूर्णरूप से तिब्बत में है· यह अदभुत सोन्दर्य वाला पर्वत है जिसमें 4 फलक्‌ / आमुख हैं·यह चार महान धर्मों : तिब्बती बोद्धवाद, हिंदुवाद, जैन धर्म एवम बौद्ध पूर्ब् जीववादी धर्म : बॉन्पो के लिए अध्यात्मिक केंद्र है· तिब्बतीयों के लिए यह खांग रिम्पोचे (बर्फ का बहमुल्य रत्न) के रूप में जाना जाता है और वे इसे विश्‍व की नाभि के रूप में देखते हें· यह कहा जाता है कि इस पर्वत से एक धारा नज़दीक़ी झील में गिरती है और यहाँ से नदियाँ चार मुख्य दिशाओं में प्रभहित होती है·उत्त्तर की और सिंह मुख नदी , पूर्ब् की और अश्व मुख नदी, दक्षिण की और मयूर मुख नदी तथा पस्चिम की ओर गज़ मुख नदी ·यह काफ़ी आश्‍चर्या की बात है कि चार प्रमुख नदियाँ - सिंध, यर्लांग सोँपो(ब्रह्मपुत्र), करनाली एवम सतलुज का उद्‍गम वास्तव में कैलाश पर्वत के पास से
होता है·

मान्यता है कि यह पर्वत स्वयंभू है. कैलाश पर्वत के दक्षिण भाग को नीलम, पूर्व भाग को क्रिस्टल, पश्चिम को रूबी और उत्तर को स्वर्ण रूप में माना जाता है. इसके शिखर की आकृति विराट शिवलिंग की भांति है. पर्वतों के मध्य यह स्थान सदैव बर्फ़ से आच्छादित रहता है तिब्बत वासियों के लिए भी यह एक बहुत विशेष स्थान है जहाँ पर उनके कवि संत मिलारेपा ने गुफा में ध्यान लगाते हुए कई वर्ष बिताए थे · हिंदुओं के लिए कैलाश पर्वत , मेरु पर्वत की सांसारिक अभिव्यक्ति है की भ्राह्मांड का उनका अध्यात्मिक केन्द्र है , जिसका चित्रण 84,000 मील उँचें विलक्षण "विश्व स्तंभ" के रूप में किया गया है, जिसके चारों और अन्य सभी परिक्रमा करते हेँ , जिसकी जड़ें पाताल में हेँ एवं जिसकी चोटी स्वर्ग का चुंबन कर रही है · शिखर पर उनके परम श्रद्ढेया श्र्द्धेय भगवान शिव एवम उनकी धर्मपत्नी पार्वती निवास करती हैं·जैन धर्म , जो कि एक भारतीय धार्मिक समूह है, के अनुयायियों के लिए कैलाश वह स्थान है जहाँ पर उनके प्रथम संस्थापक ने जैन धर्म , जो कि एक भारतीय धार्मिक समूह है, के अनुयायियों के लिए कैलाश वह स्थान है जहाँ पर उनके प्रथम संस्थापक ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था·

पुराणों के अनुसार मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी. इस स्थान से जुड़े विभिन्न मत और लोक-कथाएँ इसकी प्रमाणिकता को प्रदर्शित करती हैं, मानसरोवर झील तिब्बत में स्थित एक झील है, शास्त्रों में इस स्थान को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं कुछ के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल के जल से इस मानसरोवर की स्थापना की तथा कुछ के अनुसार देवी सती का हाथ इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह झील तैयार हुई. कैलाश मानसरोवर स्थल स्वर्ग से कम नहीं है. इस स्थल के विषय में यह मान्यता है, कि जो व्यक्ति इस स्थल का पानी पी लेता है. उसके लिये भगवान शिव के बनाये स्वर्ग में प्रवेश मिल जाता है. यह स्थान माता के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है।







पहला दिन :: 21/06/2014

सुबहे 8 बजे खाली पेट ’दिल्ली हार्ट एंड लंग्स इंस्टीट्यूट’ पहुँचकर रिपोर्ट करना होता है।, कुमाऊँ-मंडल के कर्मचारियों द्वारा हम सब बस में ’दिल्ली हार्ट एंड लंग्स इंस्टीट्यूट’ लाए गए । यहीं पर पहली बार अपने सहयात्रियों से मेरा परिचय हुआ। हमारे दल के सभी यात्री प्रतीक्षा-कक्ष में बैठे हुए थे।

अस्पताल के कर्मचारी बड़ी मृदु-वाणी में सौहार्द्रपूर्ण ढंग से यात्रियों के नाम पुकार कर बुला रहे थे। सभी को पहचान हेतु एक रीबन बांधने को दिया गया था। एक ओर अस्पताल के कर्मचारी एक फार्म भरवा रहे थे जिसमें हमारी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी भरनी थी साथ ही फीस भी जमा करनी थी और बैठकर अपने नंबर की प्रतीक्षा करनी थी तो दूसरी ओर कुमाऊँ-मंडल के अधिकारी हमारे पासपोर्ट और वीज़ा-शुल्क एकत्र कर रहे थे।

अस्पताल में मूत्र और रक्त की जाँच के अलावा ई.सी.जी., ट्रेडमिल टेस्ट, पी.एफ.टी. जैसी जाँच हुईं। ग्रुप को ३० -३० के दो ग्रुप्स में बाट दिया गया। रेड रिबन वालो का टी.म.टी. खाली पेट पहले होना था। खाली पेट में चूहे कूद रहे थे। सभी ग्रीन रिबन वालो को मूत्र और रक्त की जाँच के बाद सैंडविच, इडली, वडा का नास्ता करने को मिल गया। मेरा भी ग्रीन रिबन था।

पहले ग्रुप का ट्रेडमिल टेस्ट जल्दी हो गया और उन्हें खाना मिल गया। खाना खाने के बाद कॉनफ़्रेंस रूम में दो डाक्टरों ने संबोधित किया। पर्वतारोहण के समय होने वाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से सावधानी बरतने और रोग-संबंधी जानकारी दी। जो दवाइयाँ अपने साथ ले जानी थी उनकी जानकारी दी। कुछ पावर-पाइंट प्रस्तुति भी दी।

हमारे दूसरे ग्रुप की टी.म.टी. होने में काफी समय लग गया और खाना खाते खाते करीब ४ बज गए। करीब 5:30 बजे हम लोग गुजराती-समाज के लिए वापस निकल पड़े।





दूसरा दिन :: 22/06/2014

आईटीबीपी बेस हॉस्पिटल पहुँचने का समय नौ बजे था। कुमाऊँ-मंडल के कर्मचारियों द्वारा हम सब बस में आईटीबीपी बेस हॉस्पिटल लाए गए। सभी यात्री जयकारे लगाते हुए बस से हॉस्पिटल पहुंचे। हम सभी को एक कक्ष में बैठाया गया, सभा-कक्ष को देखकर पता चल रहा था कि यह फ़ौजी-कक्ष है। बड़ी और लंबी मेज के चारों ओर कुर्सियाँ लगीं थीं। सभी आते गए और बैठते गए।

सभी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे, डा. पैनल में सभी को क्रम के अनुसार बुलाया जा रहा था। ग्रुप के सभी लोग आपस में परिचय एवं फोटो खिचवाने में समय और मेडिकल परिणामो के तनाव को काम कर रहे थे। इसी दौरान हमें अपने एल०ओ०.:- श्री संतोष मेहरा जी से परिचय हुआ जो की ग्रुप को थोड़े से जटिल व्यकतित्व के लगे, परन्तु यह हमारा आकलन आगे के दिनों में गलत सिद्द हुआ। एल०ओ० ने सभी को शुभकामनाएँ दीं और बातचीत के आधार पर कमेटियाँ बनायीं और कार्य-भार सौंपे।

इसी बीच मेरा नंबर आया। धड़कन तेज हो गयी। दुविधामय घबराहट न जाने क्या-क्या?

परन्तु सब कुछ शिव की कृपा से सही था। दोपहर का भोजन, आईटीबीपी. बेस हॉस्पीटल में भटिंडा की प्रायवेट सेवा-संस्था की ओर से सम्मान एवं भोजन का आयोजन था। वे बड़े आदर से साथ ले जा रहे थे। स्वयं हाथों से खाना परोस रहे थे और झूठी थालियाँ भी हमें उठाने नहीं दी, उस संस्था ने यात्रियों को एक-एक बैल्ट-पाउच भी भेंट किए। कैलाशी गुलशन भाई की तरफ से हमें यात्रा में काम आने वाले सामान एक छोटा बैग एवं उनकी यात्रा की संस्मरण पत्रिका आशीर्वाद स्वरूप मिली, जो यात्रा के समय में काफी उपयोगी रही।

समय के साथ मेडिकल टेस्ट की रिपोर्ट सभी यात्रिओ को दी गई एवं परिणाम बताया गया. हमारे बैच में से तीन यात्रियों को चिकित्सीय-जाँच में अयोग्य पाया गया। शिव की कृपा से हमारा बैच पूरे 60 का यात्रिओ हुआ। मेडिकल 62 लोगो का हुआ था। काफी सालो बाद कोई बैच पूरे ६० यात्रिओ का था। सभी बहुत खुश परन्तु अपने 3 साथिओ से बिछड़ने से दुखी भी थे, परन्तु हम सभी ने नियति स्वरुप इसे स्वीकार कर लिया।
सभी यात्री बस में बैठकर गुजराती-समाज की ओर चल पड़े। लगभग सात बजे वहाँ पहुँच गए। दो दिन में ही यात्रियों से मेल-मिलाप बढ़ गया था। उसी दिन हमारे सहयात्री श्री बाबू भाई जो गुजरात से थे एवं सुलोचना बहन जो शिमला से थे उन का जन्मदिन था, सुभकामनाये तो हम सभी सुबह दे चुके थे। केक काट कर पूरे ग्रुप ने उन जन्मदिन मनाया, बाबू भाई ने अपने भजन से हम सभी को आनंदित किया।



तीसरा दिन :: 23/06/2014

आज सुबहे सभी ने इत्मीनान से गुजरती भवन के नास्ते का आनंद लिया और मिनिस्ट्री ऑफ़ एक्सटर्नल अफेयर (MEA) जाने के लिए - भोले नाथ की प्रार्थना एवं उद्घोष के बाद बस में बैठ गए। सभी यात्रियों की क़तार बनाकर, नाम पुकारकर और लिस्ट से मिलाकर हॉल में पहुँचाया गया। विदेश-मंत्रालय और कुमाऊं-मंडल के आधिकारी वहाँ पहले से ही उपस्थित थे। इतने में ही हमारे एल०ओ० साहब भी हॉल में प्रवेश कर गए। कुमाऊं-मंडल और आईटीबीपी के अधिकारियों ने यात्रा की ब्रीफिंग की, साथ-साथ यात्रा संबंधी कठिनाइयों की जानकरी देते हुए उस समय भी किसी भी सदस्य को यात्रा रद्द करने की छूट दी। इन्डेंमनिटी बोंड और फॉर्म इत्यादि भरवाए गए और शेष धन भी लिया गया और रसीदें दीं। (सभी संलग्न प्रपत्र की भाषा-प्रारुप विदेश-मंत्रालय डाक द्वारा पत्र के साथ ही भेजता है।) सभी के पासपोर्ट वापिस किए ताकि लोग डालर खरीद सकें। लेफ्टिनेंट कामद जो पहले एल०ओ० रह चुके है उन्होने अपने यात्रा संस्मरण हमारे साथ साझा किये।

हॉल काफी ठंडा था एवं सभी ग्रुप साथियो को चाय / कॉफ़ी की कमी बहुत खाली, कुछ साथीयो ने वहां चाय वेंडिंग मशीन ढूंढ ली। मैंने अपने सहयात्री श्री आशुतोष एवं श्री अनुज के साथ भुगतान कर चाय का आनंद लिया।

फिर हम सभी लोग बस से वापस गुजरती भवन आ गए। जिन यात्रिओ को डॉलर लेने थे वो गुजरती समाज से अशोक होटल चले गए, मेरे पास पहले से डॉलर थे एवं पिछले साल के बचे हुए RMB भी पड़े हुए थे। तो मैंने नहीं लिए. पास के मार्किट में जा कर ज़रूरी सामान की खरीदारी कर ली।



उसी दिन शाम को 6 बजे दिल्ली-सरकार के राजस्व-विभाग की ओर से गुजराती-समाज में यात्रियों का विदाई-समारोह और भजन-संध्या का आयोजन था। सब काम करके हम नहा धोकर भजन संध्या में पहुँच गए। दिल्ली सरकार की तीर्थ-यात्रा विकास समिति के चैयरमैन श्री उदयकौशिक जी और दिल्ली-सरकार के अधिकारियो सामने स्टेज पर उपस्थित थे। दायीं ओर एक मेज पर भगवान गौरी-शंकर की मूर्ति विराजमान थीं जिन पर पुष्प-मालाएँ सुशोभित हो रहीं थीं। लोग बारी-बारी से आकर मूर्तियों पर तिलक लगा रहे थे और पुष्प समर्पित कर रहे थे। बायीं ओर एक बड़ी चौकी पर भजन गायक भक्ति रस फैला रहे थे। लोग मगन होकर तालियाँ बजा रहे थे, झूम रहे थे और नाच रहे थे। बहुत सुंदर समां बांधा था। भगवान शंकर की आरती हुई। इसके बाद सभी यात्रियों का दिल्ली सरकार की ओर से स्वागत किया गया। सभी को फूलमाला पहनायी गयीं। एक ट्रैक-सूट, एक बरसाती सूट और एक ट्रैवल-बैग (रकसक) जिसमें एक टार्च और एक डिब्बे में पूजा का सामान था, भी भेंट किया गया। K.M.V.N के श्री दीवान जी ने, श्री गणेश जी से परिचय कराया, जो भारत चीन बॉर्डर - लिपु पास तक साथ जाने वाले थे। सभी ने सुस्वादु भोजन का आनंद लिया। चूंकि लगभग यात्रीगण वहीं ऊपर रुका हुआ था, सो कुछ-कुछ करके लोग जाते जा रहे थे। अब समय था सामान पैकिंग का, देर रात तक हमारा हाल बोरियो में सामान की पैकिंग से गुंजायमान रहा।



चौथा दिन :- दिल्ली से अल्मोड़ा तक :: 24/06/2014

गुजराती समाज सदन में ब्रम्ह मुहुर्त से ही हलचल प्रारंभ हो गयी, यात्रीगण नित्य कर्म से निपटने के उपरांत स्नान एवं पूजा में लग गए, महिला यात्रियों के लिए पृथक से स्नानागार होने से उन्हें भी असुविधा नही हुई। सुबहे तैयार हो कर मै उदय कौशिक जी के कमरे आ गया जहा शिव स्तुति अनवरत चल रही थी। मैंने हवन एवं आरती कर के प्रसाद ग्रहण किया कौशिक जी ने आशीवार्द स्वरूप सभी को मालाये पहना कर शुभ मंगल यात्रा एवं दर्शनों की कामना की।

तब तक वॉल्वो बसे लग गई थी हमारा सामान सुबहे सुबहे ५ बजे लोड हो गया था, ल.ओ. साहब भी आ गये थे, इस तरह सभी यात्री बाहर मुख्यद्वार पर पहुँच गए। कुछ प्रायवेट संस्थाओं के लोग भी विदा करने आए हुए थे। सभी यात्रियों को ‘ॐ नमःशिवाय’ लिखे पटके और माला भेंट में मिलीं। सभी मन में कैलाश दर्शन का भाव लिए बस में गये, सभी ने उच्च स्वर में भगवान शिव का जयजयकार किया और बैठ गए। बस DELHI की सड़को से घूमते हुए गाज़ियाबाद के जीटी रोड पर बने बड़े हॉल के आगे रुकी। सभी नीचे उतरे। सामने गाज़ियाबाद मानसरोवर सेवा समिति के अध्यक्ष और अन्य सदस्य हमारे स्वागत में फूलों की मालाएं लेकर खड़े थे। सभी को मालाएं पहनायी गयीं और भगवान शिव केध्यानस्थ रुप के चित्र वाला पेंडेंट लगी मालाएँ भेंट दी गयीं।

मंच सजाया हुआ था। एलओ साहब मुख्य आतिथि थे उनका विशेष स्वागत हुआ। 17 वी बार जाने पर दीदी राजलक्ष्मी का भी विशेष सम्मान हुआ। लंबा सफ़र होने के कारण सभी तीर्थयात्रियों को अतिशीघ्र जलपान समाप्त करके बस में बैठने को कहा गया । सभी बात मानते हुए जल्दी ही जलपान निपटा दिया और गाज़ियाबाद के आतिथ्य-सत्कार के लिए धन्यवाद और आभार प्रकट करते हुए बस में जा बैठे।

लगभग दो बजे बस काठगोदाम कुमाऊँ-मंडल के अतिथि-गृह के द्वार के पास रुकी। स्त्रियाँ पारंपरिक परिधानों में सुसज्जित होकर हाथ में थाल सजाए स्वागत के लिए खड़ी थीं। सभी तीर्थ-यात्रियों के तिलक लगाया गया और माला पहनायी गयीं। वहाँ स्थानीय अखबारों के और किन्हीं टीवी चैनलों के पत्रकार भी खड़े थे जिन्होंने सभी तीर्थयात्रियों के सामूहिक फोटो लिए और कुछ से बातचीत भी रिकॉर्ड की। वहीं भोजन कक्ष में दोपहर का भोजन किया। सब पुनः चलने को तैयार थे। यहाँ से छोटी मै मिनी बस से जाना होता है, क्योंकि आगे रास्ता पहाड़ी चढ़ाई वाला है। हल्की बारिश हो रहे थी सभी बस में जा के बैठ गये बस की सीट बहुत छोटी थीं। टांगें फंस रहीं थी। लगभग २.५ घंटे बाद बस कैंची-धाम में रुकी, सभी ने अंदर जा कर दर्शन किये और बाहर आकर सभी ने चाय पी, मगोड़े खाए और कुछ फल इत्यादि खरीदे

और चल दिए। बाहर आसमान में अद्भुत दृस्य देखने को मिल रहे थे। सूर्यास्त होते होते हम अल्मोड़ा के के.एम.वी.एन. गेस्ट हाउस में पहुंच गये।

के.एम.वी. एन. का गेस्ट हाउस की लोकेशन बहुत ही मनोहर है और मुख्य मार्किट के पास, कमरे बड़े और आरामदेह है।

कॉफ़ी पी कर अपने अपने कमरो में पसर गये, मै, श्री आशुतोष जी एवं श्री अनुज जी एक ही कमरे में थे। फिर थोड़ी देर में नीचे आने पर पता चला के सभी की अलग अलग फोटो खींचने है, फोटो खिचवा कर सूप पिया और बहार घूमने आ गये थोड़ी देर में खाना खाया, खाने में अल्मोड़ा की प्रसिद्द बाल मिठाई से खाने का सुस्वाद दुगना हो गया। खाने के बाद ल.ओ साहब ने सब को बाहर बुलाया, अगले दिन की यात्रा के बारे में बताया, ग्रुप के सभी सदस्यों से इंट्रोडक्शन लिया. हम लोग सोने आ गये।





पाँचवाँ दिन : अल्मोड़ा से मिर्थी , धारचूला :: 25/06/2014

सुबहे ४ बजे हम सभी उठ गये और नहा कर नियत समय ५ बजे नास्ता करके तैयार थे। सूर्य देव भी अभी उगने की सोच ही रहे थे कुछ चैनल वाले ल.ओ. साहब के इंटरव्यू लेने के लिए गेस्ट हाउस के बाहर इंतज़ार कर रहे थे। सुबहे सुबहे बाहर का नज़ारा दिल को छू लेने वाला था। शंकर भगवान का जयकारा और “ऊँ हर-हर महादेव” का घोष के साथ लोग निकल पड़े, रास्ते में अल्मोड़ा से मैंने ग्रुप के लिए बाल मिठाई खरीदी, जो हमने तकलाकोट में खाई।

बस पहाड़ी गांव और अन्य रिहायशी इलाकों को पार करती हुयी गोलू देवता के मंदिर पर रुकी, यहा पर अर्जी पेपर पर लिख कर घंटी के साथ चढाई जाती है। बड़ा ही प्राचीन एवं सिद्ध मंदिर है सभी ने अंदर दर्शन-पूजा की और बाहर फोटोग्राफ़ी। और फिर हम चल दिए करीब १.५ घंटे चलने के बाद हम धोलाचीना नास्ते के लिए रुके, वहा पर अख़बार में कल की काठगोदाम के खिची फोटो छपी थी।आलू पराठे और दही के नास्ते के बाद हम आगे बाद गए।

रास्ता हमें गोल गोल घुमाते हुए आगे ले जा रहा था, रास्ते में हमारे सहयात्री श्री सुरेश उपधाय जी के परिजन मिलने आये, बड़ा ही अपनापन लगा उन से मिल कर, हम लोग थोड़ी देर रुक कर आगे चल दिए और हमारा अगला पड़ाव था डी.डी. हाट का K.M.V.N. गेस्ट हाउस जहां हमने दोपहर का भोजन करना था। डी. डी. हाट पर दल का स्वागत तिलक के साथ हुआ, खाना खाकर हमे मिर्थी के लिए निकलना था।

I.T.B.P. की जीप हमें एस्कॉर्ट करने के लिए तैयार थी। खाना खा कर हम लोग मिर्थी के लिए चल पड़े हम मिर्थी पहुंचे बैंड-बाजे बज रहे थे। जब आई.टी.बी.पी. के जवानों को अपने दल के स्वागत में खड़े देखा तो मन अद्भुत भाव से भर गया। स्थानीय लोक-कलाकार परंपरागत वेशभूषा में छलिया-नृत्य करते हुए चल रहे थे। आगे मुख्य स्वागत-कर्ता आई.टी.बी.पी. के कमांडर-इन-चीफ़ हमारे दल के स्वागत में खड़े थे। उन्होंने एलओ को पुष्प-गुच्छ भेंट किए। हम लोगो को ग्रुप फोटो के लिए निर्धारित स्थान पर ले जाया गया फोटो लेने के लिए सीट नामांकित-पर्ची चिपकी हुई पहले से ही निश्चित थीं। सभी अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए और फोटो खिचवाया।

इसके बाद आई.टी.बी.पी. के कमांडर-इन-चीफ़ ने औपचारिक स्वागत-भाषण की शुरुवात एवं कैलाश यात्रा में क्या सावधानिया रखने चाहिए, किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए यह सब दृश्य-श्रव्य सामग्री के साथ बहुत सरल भाषा में और विस्तार से स्पष्ट किया। ये टिप्स सभी के बहुत काम के थे।

तत्पश्तात सभी को जलपान हेतु बड़े कक्ष में ले जाया गया जहाँ दो बड़ी मेजों पर बड़े ही शिष्ट ढंग से स्वच्छ और शुद्ध जलपान लगाया हुआ था। सभी ने फोटो ली, अब समय था विदा लेने का, विदाई भी तो अति भावपूर्ण थी। फौजी बैंड की धुन बजाकर भेजा जा रहा था। हम सब गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। उन सब के प्रति आभार मान रहे थे। यात्रा के उत्साह को अत्यधिक बढ़ाने वाला यह स्वागत कभी भी न भूला जा सकेगा।

मिरथी से धारचूला नीचे ढलान पर है सो हम तेजी से नीचे जा रहे थे। धारचूला से पहले से काली नदी हमारे साथ चल रही थी, रास्ते में हमें पिछले साल की त्रासदी की तस्वीर साफ दिख रही थे। शाम साढ़े पांच बजे के आसपास हम धारचूला के कुमाऊं-मंडल विकास निगम के गेस्ट-हाऊस में प्रवेश कर गए। सभी अपने कमरे की चाबी लेकर चल दिए। कमरे बड़े थे, साफ़-सुंदर, अटैच बाथरुम। टीवी लगा हुआ था। सौभाग्य से आशुतोष जी एवं अनुज जी के साथ का सौभाग्य यहाँ भी प्राप्त था। फ्रेश हो कर एवं नास्ता कर हम तीनो जन नेपाल साइड पुल पार कर घूमने चले गये, हमारे पास ४० मिनट थे। हम लोग जब तक वापस आये, हमारा सामान आ चुका था हमारा कमरा प्रथम ताल पर था तो सामान चढ़ा कर कमरे में ले गए।

बहुत गर्मी थी पंखे चल रहे थी, कुछ कपडे धो के डाल दिए और नहा कर हल्का महसूस कर रहे थे नीचे गये और गेस्ट हाउस के पीछे से काली नदी साफ़ दिख रही थी वह खड़े प्रकृति का आनंद ले रहे थे, के सूप आ गया और मालूम चला के इंडिया साइड के पोनी, पोर्टर के लिए अभी बुकिंग करनी होगे और टोकन अमाउंट जमा करना होगा। खाना खत्म होने तक सभी ग्रुप यात्रियों में पोनी, पोर्टर की चर्चा चलते रही। मैंने पैदल चलने का ही विचार किया था परन्तु रास्ते की दुर्गमता की देखते हुए पोनी लेने का निर्णय किया ताकि किसी आकस्मिक जरूरत पर इस्तेमाल किया जा सके, कुछ यात्रियों ने पोनी, पोर्टनेर दोने किये, कुछ ने मेरे तरह पोनी।

लगेज के लिए भी बताया गया कि गाला में (अगला रात्रि विश्राम) लगेज नहीं मिलेगा। एक जोड़ी कपड़े साथ वाले बैग में रखें। फालतू सामान यहीं छोड़ा जा सकता है। आने पर वापिस मिल जाएगा। अधिक सामान न ले जाएं। बीस किलो सामान से अधिक न ले जाया जा सकेगा।

अगले दिन सुबहे 8 बजे निकलना था, पुनः पैकिंग करके भगवान का नाम लिया और निद्रा समाधि में चले गए·



छठा दिन :: 26/06/2014

धारचूला से सिरखा (वाया नारायण आश्रम)

सिरखा की ऊँचाई 2560 मीटर

आज सभी आराम से सोकर उठे। सामान तो रात को ही लगाकर सोए थे। सुबह कमरे में ही चाय आ गयी। स्नान आदि से निवृत्त होकर नीचे लगेज पंहुचा कर मार्किट जा कर कुछ टॉफ़ी खरीद ली, सभी ने अपने लिए बेंत ले लिए और मार्कर से अपना-अपना नाम लिख लिया। नाश्ता शुरु हो गया था, कुछ साथीजन फोटग्राफी में बिजी थे कुछ नास्ते में, हमने नास्ते के बाद कुछ दर्शयो को मैने कैमरे में कैद किया।

जब एलओ की सीटी बजी तो शंभु स्तुति के बाद जीप में जा कर बैठ गए। जीप से हमें धारचूला से नारायण आश्रम जाना थे, वहां से पैदल रास्ता शुरु होता है धारचूला इस यात्रा में आखिरी बड़ा शहर है। काली नदी के किनारे ठेठ पहाड़ी रास्ते पर जीप चल रही थी। कुछ ही देर में शरीर की अच्छी कसरत हो गयी थी। जीप लाइन से चल रही थी बीच में एक जगह रुकते हुए हम लोग नारायण आश्रम पहुंचे, यहाँ पर ड्रा दवारा पोनी एवं पोर्टर का अलॉटमेंट किया गया, पोनी कम होने के वजह से मुझे और कुछ सहयात्रीओ को पोनी नहीं मिला, बताया गया गाला में मिलेगा।

नारायण आश्रम की स्‍थापना 1936 में नारायण स्‍वामी ने की थी। जो समुद्र तल से 2734 मीटर की ऊंचाई पर है। यह आश्रम एक धार्मिक स्‍थान है। यहां स्‍थानीय बच्‍चे शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए भी आते हैं।
इसके साथ ही नारायण आश्रम स्‍थानीय निवासियों की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में भी मदद करता है। यह आश्रम बहुत ही खूबसूरत है और आश्रम के चारों ओर रंग-बिरंगे फूल इसकी खूबसूरती को ओर अधिक बढ़ाते हैं। आश्रम का वातावरण बहुत ही शान्तिपूर्ण है। इसके अलावा आश्रम में यात्रियों एवं पर्यटकों के लिए मेडिटेशन रूम और समाधि स्‍थल की सुविधा भी उपलब्‍ध है। प्रत्‍येक वर्ष इस आश्रम में काफी संख्‍या में विदेशी पर्यटक घूमने के लिए यहां आया करते हैं। आश्रम भारी बर्फबारी की वजह से सर्दियों के दौरान बंद रहता है।

हम लोगो ने नारायण आश्रम में दर्शन एवं प्रसाद ग्रहण के शिव जयकारे से साथ चलना शुरु किया आज हमें सिर्फ ६ कि.म. चलना था। रास्ता ज़्यादा कठिन नहीं था। रस्ते के दृश्य बड़े ही मनोहारी थे हम लोग छोटे गांव से होते हुए, बच्चो में धारचूला में खरीदे टॉफ़ी बाटते हुए पूरा ग्रुप २ बजे तक सिरखा कैंप पहुंच गया।

सिरखा गाँव, रास्ते में पड़ने वाला पहला गाँव है यहाँ का मुख्या व्यसाय खेती है गाँव की लोग सवाभिमानी एवं शिस्ट है।

कैंप पहुचने हमारा स्वागत लीची के शरबत से हुआ, थोड़ा रुकने के बाद हमने खाना खाया और में और आशुतोष जी सामने बने P.W.D. के गेस्ट हाउस में चले आये। जहा पर हमारे ल.ओ. साहब भी रुके हुए थे तभी पानी गिरना शुरु हो गया और हमारी मुलाकात वहां रुके हुए डॉ. से हए जो पिथौरागढ़ से थे। हम लोग काफी देर बात करते रहे और फिर वापस कैंप आ गए बारिश के बाद आसमान साफ़ हो गया था।

शाम की चाय एवं पकोड़ों के साथ जो भजन संध्या की शुरुवात हुयी वह काफी शाम तक चलते रही, बाबू भाई, मैथली जी, वर्षा दीदी, राजेंद्रन भाई, के कारण एक समां बांध गया। नम्रता बहन को यात्रा के शुरू से काफी खांसी आ रही थी। मैने उसके लिए विशेष चाय बनवा के दी, जिस से उसी आराम आ गया। पिथौरागढ़ के डॉ. साहब भी बाद में शामिल हो गए जिनसे हम pwd कैंप में मिले थे

डॉ. साहब के साथ शाम को सिरखा गांव में जा कर घर वालो से PCO से बात की, धारचूला के आगे पूरे रास्ते कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं है। रास्ते में सभी गेस्ट हाउस में PCO की सुविधा उपलब्ध है जो की सॅटॅलाइट के जरिये कनेक्ट होते है। वापस आ कर सूप पिया और जेनेरेटर शुरु होने कैंप में लाइट जगमगने लगी, लाइट आते ही सभी ने मोबाइल, कैमरा चार्जिंग में लगा दिए, आज कल के मोबाइल टोर्च की तरह स्तेमाल हो जाते है और खाना खा कर हम लोग सोने चले गए। आज कमरे में श्री अनुज और श्री आशुतोष जी के साथ श्री रवि जी, श्री सुरेश उपाधया जी, श्री बंसल जी का सानिध्य प्राप्त हुआ।

सातवाँ दिन :- सिरखा से गाला :: 27/06/2014

गाला की ऊँचाई 2378 मीटर

सुबहे ४ बजे नींद खुले तो देखा बाकी लोग उठ गए है। थोड़ी देर लेटे रहे और नित्य कर्म से निवृत हो कर स्नान ध्यान कर ५:३० तक तैयार हो गए। चाय और बोर्नबिटा मिला दूध तैयार था। मैंने थोड़ी चाय ले ली, श्री आशुतोष जी का पोर्टर सूरज भी आ गया था। हम सभी ने अपना अपना बैग उठाया और शिव स्तुति एवं जयकारे के साथ गाला की राह पकड़ ली।

रास्ता शुरू में ठीक था, परन्तु 0.5 कि.म.बाद से खड़ी चढाई शुरू हो गयी। धीरे धीरे एक दूसरे का मनोबल बढ़ाते हुए, शिव जयकारे के साथ सभी यात्री आगे बाद रहे थे। करीब २ घंटे की खड़ी चढाई के बाद, एक हमने ताज़े सिके फुलको एवं मटर की सब्जी का नास्ता किया कुछ यात्रियों ने मैगी बनवा के खाई, शिव के कृपा से हरी चटनी के साथ नास्ता बड़ा ही स्वादिस्ट लगा। में पसीने से बिलकुल भीग गया था, मेरे टी शर्ट पूरी तरह पसीने से गीली हो गयी थी।

थोड़ा सुस्ताने के बाद फिर चढाई शुरू की, आज हमे १४ कि.म. का रास्ता तय करना था । गाला में मुझे पोनी मिल गया था। तो उसे मेने अपना बैग महिंदर को दे दिया था। तकरीबन १.५ घंटे की खड़ी चढाई के बाद हमे देवी मंदिर मिला। मंदिर में दर्शन के बाद चले तो एकदम उतराई शुरू हो गयी और हमने २ घंटे की उतराई के बाद बरसती नाला पैदल पार किया। काफी पानी था उस में, बारिश के समय कितना पानी रहता होगा और पिछले उत्तरांचल तबाही वर्ष में कितना पानी का वेग रहा होगा वह उस पर बने टूटे पुल से पता लगता था।

पुल पार करने के बाद कुछ दुकाने मिली अब फिर चढाई शुरू हो गयी थी । थकान शरीर पर होवी हो रही थी पर बाबा कैलाश नाथ जो पूरी यात्रा नंगे पैर एवं एक वस्त्र में कर रहे थे देख कर ही हम सभी को उर्जित कर
देता था। कुछ और चलने के बाद कैंप से करीब २ कि.म. पहले हम यात्रिओ के लिए I.T.B.P. के जवान बैठने के लिए कुर्सी, एवं चाय और पानी के साथ इंतज़ार करतें मिले

कुछ समय उन के साथ बिता कर और उनका धन्यवाद कर हम कैंप के लिए चले और १ बजे तक कैंप पहुंच गये।

कैंप में हमारा स्वागत बुरांश के फूलो के शरबत से हुआ, बुरांश पहाड़ो में उगता है, और दिल के लये बहुत अच्छा होता। उस को पीते ही हमारे थकान आधी हो गयी मैंने ५/६ गिलास उस शरबत का लुफ्त लिया
बाहर हमारा धारचूला में जमा सामान पड़ा था अपनी बोरी ढूढ़ कर उसे कमरे ले आया और फिर जा कर बिस्तर पर लेट गया पसीने से पूरा भीग गया था तो थोड़ी देर बाद नहाने चला गया नहा कर दोपहर का भोजन किया

सॅटॅलाइट फ़ोन PCO यहाँ कैंप में ही था। परन्तु बंद था। आज पैर भारी लग रहे था अब एक कदम भी चलना मुश्किल लग रहा था किसी तरह दोबारा फ़ोन करने गया और घर पर बात की और आराम करने
रूम में आ गया। आराम करने के बाद भी चलने में मुश्किल हो रही थे। फिर एक पोर्टर को बुला का पैरो की मालिश करवाई थोड़ा' आराम लगा परन्तु उससे मन संतुस्ट नहीं हुआ। बाहर जा कर ल.ओ. साहब और यात्रिओ के साथ गपसप की, शाम की चाय आ गयी थी

अब फिर बैग पैक कर के देना था। पूरी यात्रा में में मुझे सबसे ख़राब काम बार बार बैग खोलना और पैक करना लगा। कुछ सामान भूल जाओ तो फिर पूरा बैग खोलो और पैक करो। चुकि सामान खच्चरों पैर जाता है और बारिश इत्यादि में भीगता है तो उसी विषेश तरह से पैक करना होता था। मैंने अगले दिन की ज़रूरत का सामान निकला और बैग पैक करने में लग गया।

कैंप में ही मंदिर था मुझे बड़े भाई श्री राजेंद्रन (जिंदिगी भाई) ने शिव स्वरुप रुद्राक्ष पहनाया वो यह सभी यात्रिओ के लये लए थे। और बाकी सब को वह delhi में पहना चुके थे। पता नहीं मै कैसे छूट गया था। ल.ओ. साहब ने अगले दिन की यात्रा का ब्रीफ किया। अगला दिन काफी कठिन और सावधानी वाला था हमे पूरे रास्ते काली नदी के किनारे किनारे चलना था।

शाम घिर चुकि थी सभी ने मंदिर में शिव स्तुति की और मंदिर में आरती के बाद सूप और रात्रि की भोजन के सेवन के साथ सभी ने अपने अपने बिस्तरों की राह पकड़ ली आज मुझे श्री अनुज, श्री आशुतोष जी के साथ साथ श्री देबाशीष दास, श्री संजीव गोरे,श्री राजेश आनंद का सानिध्य प्राप्त हुआ.




आठवाँ दिन :- गाला से बिन्दाकोटी, लखनपुर, मालपा, लामरी

बुधी :: 28/06/2014

बुद्धि की ऊँचाई 2740 मीटर

अब सुबह 4.00 बजे नींद खुलने का नियम सा बन गया था। नित्यक्रिया से निवृत हो पहले बैग तैयार किया,स्नान ध्यान किया। फिर जा कर एवं बोर्नविटा पिया। ठीक 5.00 बजे यात्रा पर रवाना हुए। आज की यात्रा कुल 18 कि.मी. की थी किन्तु उसमे से 7-8 कि.मी. लखनपुर अत्यन्त कठिन सकरा एवं पथरीला रास्ता था।

पूरा रास्ता काली नदी के किनारे-किनारे जाता है। काली नदी के एक तरफ भारत है एवं दूसरी तरफ नेपाल है। अत्यन्त सकरा चट्टानी रास्ता, दाहिने तरफ 300-400 फीट नीचे काली नदी अत्यन्त वेग से बह रही थी। एवं बायी तरफ पत्थर का पहाड़ जहा से हमेशा पत्थर गिरने की आशंका बनी रहती है। उस पर विपरीत दिशा से आते हुए घोड़े और खच्चर। आज के रास्ते के पहाड़ में मैंने पाया की अम्भ्रक खनिज की मात्र काफी ज़यादा थी। चारों ओर सुंदर दृष्यों को देखते हुए और साथ चलती काली नदी की डरावनी लहरों का तांडव स्वरुप बहुत ही डरावना था। 300-400 फीट नीचे बह काली नदी की आवाज के आगे कोई और आवाज सुनाई नहीं देते थी।

बिन्द्कोटी से शुरू हुए ४४४४ सीढ़ियाँ की उतराई का सफर, ये सीढ़ियाँ क्या मानों पत्थरों को फेंक-फेंककर बनायी हुई सीढ़ियाँ हों। देखने में तो उबड़-खाबड़ टेढ़े-मेढ़े, छोटे-बड़े पत्थर बेतरतीब पड़े थे। पत्थर पर पैर रखते हुए कभी-कभी संतुलन नहीं बनता था। कभी बायीं ओर पत्थर ठीक लगता था तो वहाँ पैर रखते और कभी दायीं ओर तो वहाँ पैर रखते हुए किसी तरह नीचे उतर रहे थे।

सीढ़ियाँ उतरते-उतरते घुटने जवाब देने लगे थे घुमावदार छोटी सी पगडंडी जिसके एक ओर विशाल पहाड़ और दुसरी तरफ तेज आवाज में गिरी हुयी शिलाओं और चट्टानों पर से कूदती-फांदती काली काल-रुप में अपनी ओर आने की हिम्मत नहीं देते थी। बस संकुचित रास्ते पर आंखें गढ़ाए चलते जा रहे थे अपनी बेंत के सहारे। लगभग 8.30-9.00 बजे हम लोग लखनपुर पहुंचे, वहां चाय नास्ते की व्यवस्था की गई थी। यात्री अपनी चाल के अनुसार आ रहे थे और चाय पीकर, नस्ता कर पुनः आगे बढ़ रहे थे। आगे बढ़ने पर आया एक लकड़ी का पुल जिसके नीचे एक ओर सुपरफ़ास्ट ट्रेन की गति के समान तड़तड़-धड़धड़ गिरता झरना जिसके छींटें पुल के ऊपर भी आ रहे थे दूसरी ओर से आती काली नदी का पानी पुल के नीचे मिल रहा था।

लगभग 11.30 बजे हम लोग माल्पा पहुचे, जिसके बारे में बताया गया कि 1998 के पूर्व तक यात्री यही पर रात्रि विश्राम करते थे किंतु 1998 में रात्रि के वक्त जहाँ १९९८ में भूस्खलन के साथ-साथ बादल फटने और पुल टूटने की दुर्घटना से यात्रियों सहित 200-300 लोग काल-कवलित हो गए, तब से यहां से कैम्प हटा दिया गया है। मालपा में ही दोपहर के खाने की प्रबंध था। छोटे से चारदीवारी से घिरे आंगन में चारों ओर बैठने के लिए सीमेंट की मुंडेर सी बनी थीं जिन पर दरी बिछी हुयी थी। बीच में छोटी सी मेज पर परात में सब्जियाँ थीं। राई के पत्तों की सब्जी हमें सभी जगह मिली। पीछे से आ रहे यात्रिओ से मालूम चला के हमारा सामान ला रहा खचर कली नदी में गिर कर बहा गया है। सामान जाने से आगे की यात्रा में होने वाली परेशानी, क्यों की अभी किसी के भी गरम कपडे निकले नहीं थे, कितने लोगो का, किस का सामान था कुछ भी मालूम नहीं था, साथ ही एक जीव की जान गयी थी। बहुत ही दुखद खबर थी।

आगे का रास्ता भी बहुत कठिन था। कभी एक दम उतार तो कभी सीधी चढ़ाई। संतुलन बना-बनाकर चलना पड़ रहा था। काफी देर चलने के बाद कुछ झोंपड़ी दिखयी दी और थोड़ा आगे जाने पर लमरी कैंप था । जहां पर जवान चाय पानी के साथ हमारी सेवा में तत्पर थे। लामरी से आगे के रास्ते में बहुत ही खूबसूरत झरने भारत तथा नेपाल दोनो तरफ देखने को मिले थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं ओर पहाड़ों के ऊपर एक झरना छतरी का आकार लेकर गिरते हुए बरबस आकर्षित कर रहा था। तो दूर तरफ काली नदी घाटी में तेजी से पूर्ववत बह रही थी। कुछ समय हमने यहाँ फोटो लिए और आगे चल दिए। रास्ता पथरीला सकरा एवं घाटी होने से बहुत रिस्की भी था। आगे रास्ते मे तेज बहाव वाला झरना मिला जिसमें बीच-बीच मे बेढ़ंगे पत्थर थे तथा नीचे गहरी खाई में काली नदी बह रही थी।

बुधी से १ कि.म. पहले से कैंप साफ साफ़ दिखना शुरू हो जाता है लमरी से बुधी कैंप की दूरी 4.0 कि.म. है। हम पुल पार कर एक दम खड़ी चढ़ाई पार कर बुधी पहुंचे। बुधी छोटा सा पहाड़ी गांव है। गांव के पास ही कुमाऊ मंडल विकास निगम का कैम्प है। कैंप से पहले एक छोटा मंदिर है मंदिर में बहार से नमन कर हमने कैंप में प्रवेश किया। कैंप के बाहर फूलो की लम्बी कतार देख कर दिल में अजीब सा सुकून मिला। बुधी कैंप थोड़ा नीचे को बना है। प्रवेश में ही कुछ सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। थकान पूरी तरह से हावी थी।

कैंप में स्वागत ’ऊं नमः शिवाय’के उद्घोष और संतरे के शरबत के साथ हुआ। हम लोग ३ बजे तक पहुंच गये थे बाकी यात्री भी पीछे से आ रहे थे। आज हमने १८ कि. म. की दूरी तय की थी। थोड़ी देर आराम करने
के बाद चाय आ गये। सभी बहार आ गये और चाय के साथ चुटकुलो, भजन का दौर देर तक चलता रहा। फिर आगे के यात्रा की ल.ओ. साहब ने ब्रीफिंग की.

मौसम बदल रहा था। बादल घिर रहे थे। कैंप में ही सॅटॅलाइट फ़ोन PCO था, तो वह फ़ोन करने चला गया। फ़ोन करने की लम्बी कतार थी। थोड़ी देर में मेरा भी नंबर आ गया। और मैं जब बहार आये तो बारिश शुरू हो गये थी। मै सीधे कमरे में न जाकर खाना खाया तब तक बारिश थोड़ी काम हो गये थी।

आज मुझे डोम में श्री अनुज, आशुतोष जी के साथ श्री बंसल जी, श्री अशोकन जी, श्री बीजी, श्री सुरेश उपाधया, श्री प्रशांत जी का सानिध्य प्राप्त हुआ।




नवाँ दिन :- बुधी से छियालेख, गर्बियांग, गुंजी :: 29/06/2014

गुंजी की ऊँचाई 3160 मीटर

विगत दिनों की तरह सुबह 4.00 बजे नींद खुल गई। चाय पीकर नित्यक्रिया से निवृत हो यात्रा में प्रस्थान के लिए तैयार हुआ। आज स्नान नहीं किया। डायनिंग हॉल में सभी यात्री धीरे-धीरे एकत्र हो गए। सभी को बोर्नविटा सर्व किया गया।

लगभग ५:३० बजे हम सभी ने शिव स्तुति एवं ‘ओम नमः शिवाय का उद्घोष कर सबने आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। बुधी से सामने के हिम-मंडित धवल पर्वत-श्रंखला के साथ अन्नपूर्णा पर्वत और चोटी बड़े ही मनोहारी लग रहे थे।

पथरीली सीढ़ीदार चढ़ाई काफी जोखिम एवं थकाने वाली होती है। और हमे ऐसे ही 5 कि.म. की चढ़ाई चढ़ने थी। खड़ी चढ़ाई समाप्त होने पर हम लोग छिया लेख के समतल घाटी में पहुच गए। छिया लेख ३३५० मी. की उचाई पर है वह पर हमने पूरी एवं छोले का नास्ता किया और चाय पी कर धवल चोटियों नीचे छियालेख के गहरे हरे मैदान को निहारते हुए आगे बढे।

घाटी में आगे चेक पोस्ट था जहां पर हम लोगों का पासपोर्ट तथा पोनी पोर्टर का अनुमति पत्र चेक किया गया। अपने पासपोर्ट को मिलाकर, हस्ताक्षर करवा कर हम आगे बढ़ गये। छियालेख घाटी में विभिन्न रंगों के फुल यत्र-तत्र खिले हुए थे व पहाड़ों में बर्फ दिखाई दी।

यात्रा के दौरान रास्ते में पहाड़ी गांव ‘‘गर्बियांग पहुंचे जमीन में धंसता गांव, अपनी हस्ती को लगातार खो रहा गांव। हालांकि, बीती दो सदी में भी कैलास—मानसरोवर के प्राचीन यात्रियों के लिए भी यह गांव बहुत महत्वपूर्ण रहा है। यहीं से वे आगे के सफर के लिए राशन जुटाते थे, पोर्टर का प्रबंध किया करते थे और घोड़े-खच्चरों का इंतज़ाम भी यह गांव कर देता । हमारी यात्रा में प्राचीनता का वो पुट तो नहीं रहा, क्योंकि केएमवीएन ने हमारे लिए ये सारे इंतज़ाम धारचूला में ही कर दिए थे, मगर हमने इसे ‘समोसा प्वाइंट’ के तौर पर पहचाना।

यहाँ के घरों के दरवाजे नक्काशीदार देखने को मिले। बताया गया कि इस गांव से काफी लोग बाहर जाकर पढ़े लिखे हैं जिसमें से कुछ लोग भारतीय प्रशासकीय सेवा में भी है।गार्बियांग बस्ती के बीच से रास्ता जाता है। गार्बियांग को धसते हुए गावं के रूप में भी जाना जाता है।

यही पर हमारी मुलाकात कैलाश यात्रा से लौट रहे बैच न. -१ के यात्रिओ से मुलाकात हुयी। हमने उनसे उनकी यात्रा, कठिनाई, मौसम, स्वास्थ्य के बारे में संछेप में जानकारी ली। थोड़ी देर रूकने के बाद मैं आगे बढ़ गया। गांव के बाहर आईटीबीपी कैम्प हैं जहां सभी यात्री पहुंच कर अपना-अपना पासपोर्ट पुनः चेक करवा रहे थे। मैं भी वहां पहुंचकर अपना पासपोर्ट पुनः चेक करवाकर इन्ट्री कराया। वहां हमारी मुलाकात बैच न.-१ के ल. ओ. से हुयी।

आईटीबीपी कैम्प से आगे बढ़ने पर रास्ते में एक झोपड़ी नुमा एक होटल में दोपहर भोजन की व्यवस्था थी। सभी यात्री वहां पहुंचकर भोजन करते जा रहे थे। भोजन में खिचड़ी, सब्जी, चटनी, रोटी दी गयी मैंने भी भोजन किया जो कि बहुत ही सुस्वादु लगा। भोजन करने के बाद यात्री क्रमशः रवाना हो रहे थे। मैं भी रवाना हो गया। सभी यात्रिओ में प्रकृति के सौंदर्य हो कैमरे में भरने की होड़ से थी।

लगभग दोपहर 1.00 बजे गुंजी कैम्प के पूर्व टिंकर व काली नदी के संगम के पास वाले स्थान पर पहुंचा। नदी के उस पार आईटीबीपी के बेस कैम्प गुंजी स्पष्ट दिखाई दे रहा था। हम चाय पीकर पैदल ही कैम्प की ओर रवाना हुए। टिंकर नदी में बने पुल को पार कर टिंकर नदी के किनारे चलते कर ऊपर चढ़ाई करते हुए समतल मैदान में पहुंचे जहा आईटीबीपी के कैम्प है।

कैम्प के बाजू में ही कुमाऊ मण्डल विकास निगम के द्वारा यात्रियों के लिए कैंप था। हम करीब ३ बजे पहुंचे थे। जा कर बिस्तर पर फ़ैल गये। सुबहे स्नान नहीं किया थे परन्तु हिम्मत नहीं पड़ रहे थे। थोड़ी देर में शाम की चाय आ गयी। स्न्नान की हिम्मत जुटायी परन्तु चूल्हे पर चढ़ा सारा गरम पानी खत्म हो गया था। फिर सॅटॅलाइट फ़ोन PCO से घर में बात की। जब सामान की गिनती हुयी तब पता चला की, श्री प्रशांत, श्री बाबू भाई, श्री प्रह्लाद, नम्रता बहन का एक एक बैग खच्चर काली नदी में गिरने से मिसिंग है। ग्रुप के सभी यात्रिओ ने उन नाप के अनुसार अपने अपने कपडे दिए क्यों आगे काफी ठंडा होने थी और यहाँ कुछ खास नहीं मिलता। अपना बैग ढूढ कर हम कमरे में ले गये।

तभी मालूम चला की डॉ. सुभाष ने सब का बी.पी. चेक कर रहे है हम भी लाइन में लग गए। बी.पी. थोड़ा सा ऊपर निकला। डॉ. सुभाष के अनुसार यह सामान्य था क्यों की हम उचाई पर थे, परन्तु मन कल होने वाले मेडिकल से अशांत हो गया था।

आईटीबीपी के कैम्प में मंदिर था थोड़ी देर में वह पर कीर्तन की खबर आ गयी। और हम सब वह चले गये परन्तु स्नान न होने के कारण अजीब फील कर रहा था। तो मै वापस आ गया और देखा तो थोड़ा पानी गरम मिल गया और में नहाने चला गया। नहाने के बाद अच्छा फील कर रहा था। थोड़ी देर में डॉ. सुभाष से पुन: बी.पी. चेक करवाया और मेडिकल रिपोर्ट चेक करवायी। बी.पी. उतना ही था।

थोड़ी देर में सूप आ गया और थोड़ी देर में खाना खा कर कमरे में आ गये। आज मुझे दाये दांत में दर्द महसूस हुआ, मैंने गरम पानी के कुल्ली की और अभी साथिओ से बात करते करते सो गये। आज मुझे श्री अनुज, आशुतोष जी के साथ हमरे फाइनेंस कमेटी के श्री सेशी कुमार, गुजराती भाई श्री अशोक व्यास जी, श्री आश्विन भट्ट, श्री रवि जी का सानिध्य प्राप्त हुआ।



दसवाँ दिन :- गुंजी :: 30/06/2014

रोज़ की तरह नींद ४ बजे खुल गयी परन्तु मै आराम से उठा, जब की साथ के कुछ साथी उठ गये थे कुछ सो रहे थे नित्य कर्मा और स्नानं पूजा के बाद ७ बजे तक तैयार हो गयी आज नहाकर तृप्ति हुई। रोजाना मुंह
ठंड में जल्दी-जल्दी नहाना तो बस नाम मात्र ही था।

आज नाश्ता में इडली दिया मिली। रोज़ के रूटीन नास्ते से परिवर्तन अच्छा लगा। दांत में दर्द थे किन्तु में मेडिकल होने के वजह कोई मेडिसिन नहीं लेना चाहता था तो गरम पानी का कुल्ला जारी रखा। गुंजी हाई-एल्टीट्यूड में आता है। यहाँ पर हवा का दबाव शरीर को प्रभावित करता है।आगे की यात्रा में ऊचाई क्रमशः बढ़ती जाती है इसलिए में पुनः मेडिकल चेक-अप किया जाता है इसलिए यात्रीगण यहीं रूकते हैं।

लगभग आठ बजे एलओ ने सीटी बजायी सब अपनी-अपनी मेडिकल-फ़ाइल के साथ आकर खड़े हो गए। ’ऊँ नमः शिवाय’ के साथ सभी मंदिर में शीश झुकाते हुए भा.ति.सी.पु.ब. के कैंप के प्रांगण में पहुँच गए जहाँ
पहले से ही पूरा प्रबंध था।

कुछ देर बाद आईटीबीपी के मेडिकल ऑफिसर एवं कमान्डेट हॉल में आए सभी से परिचय प्राप्त कर आगे के यात्रा में आने वाली कठिनाई, समस्या एवं उसके हल करने के उपाय बताए। जिन यात्रियों के द्वारा पोनी
पोर्टर की सुविधाएं नही ली गई उनसे कहा गया कि दोनों नही तो कम से कम एक सुविधा अवश्य ही ले भले ही वे उसका उपयोग न करे। यात्रियों को अकेले न चलकर समूह में चलने की सलाह दी गई।

पर्यावरण की देखभाल के अंतर्गत उनकी बटालियन ने वहाँ एक ’मानसरोवर-वन की स्थापना की है जहाँ कैलाश-मानसरोवर जाने वाले सभी यात्रियों से एक-एक देवदार का पौधा रोपवाया जाता है।फावड़े से पथरीली ज़मीन खोदकर देवदार का पौधा लगाया और पानी दिया। जवानों से उसकी रक्षा का वचन लिया।

वापस आ कर हम सभी लोग मेडिकल में अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे। तो डॉ. ने मेरी रिपोर्ट्स देखीं, ब्लड-प्रैशर हार्ट-बीट इत्यादि चैक की। मेरा बी.पी. कल वाली ही स्थिति में अड़ा हुआ था। मै वापस आ गया और धुप अच्छी थी तो कपडे धो कर सूखने डाल दिए। १२ बजे खबर आयी की मेरा मेडिकल क्लियर हो गया है और ६ लोगो का जिन में श्री आशुतोष जी, श्री बाबू भाई, बहन कृष्णा रानी भी थी का शाम को पुन: मेडिकल होगा।

फिर से बैग पैक करने थे अब यह हमें तकलाकोट में चीन साइड में मिलने थे। ज़रूरी सामान निकल कर फिर बैग पैक किये।

मैंने खाने के साथ दर्द निवारक कॉम्बिफ्लेमे ले ली। आराम मिला तो थोड़े देर बाद सबसे ऊँचाई पर स्थित स्टेट बैंक-शाखा में चला गया। वह श्री गुंजयाल साहब से मुलाकात हुयी. पता चला पहले चीन से काफी बिज़नेस इस रास्ते होता है। तब इस शाखा की स्थापना की गयी थी परन्तु अब व्यापर कुछ खास न होने से यह जवानों की सुविधा के लिए ही है। जो छः-छः महीने तक यहाँ ड्यूटी करते हैं घर नहीं जा पाते हैं। यहाँ दो ही कर्मचारी काम करते हैं। सॅटॅलाइट अंटेने में खराबी की वजह से यह काफी समय से बंद है।

मेरा विचार गुंजी गांव जाने का था। मौसम बदल गया था और बारिश होने लगी, तो वापस कैंप में आ गया। शाम को मालूम चला कुछ विशेष हिदायतों के साथ ग्रुप कि ६ लोगो को भी यात्रा जारी रखने की परमिशन मिल गयी है।

सभी ने एक दूसरे को बधाई दी। रात्रि भोजन कि बाद भोजन कक्ष में एलओ ने मींटिंग रखी। उसके बाद अगले दिन की यात्रा के विषय में बताया। महिलाओ एवं कुछ लोगो के लिए गाड़ी की वयवस्था हो गयी थी।
गुंजी से कालापानी तक रास्ता कच्चा परन्तु ठीक रास्ता बना हुआ है। जिस पर सड़क को और बढ़ाने का काम चल रहा है। वह वाहन वहा मज़दूरों को ट्रासंपोर्ट के काम आते है, कुछ लोग ज़यादा थे। तो हम १२/ १५ लोगो ने पैदल जाने का निर्णय लिया। कल साढ़े पांच बजे प्रस्थान करना था।



ग्यारहवाँ दिन :- गुंजी से कालापानी - नवींढांग(ऊँ पर्वत) : 01/07/2014

कालापानी की ऊँचाई 3570मीटर

नवींढांग की ऊँचाई 4145 मीटर

विगत दिनों की तरह सुबह 4.00 बजे नींद खुल गई। नित्य कर्मा से निवृत होकर मैंने स्नान करने का र्णय लिया। और जल्दी से तैयार होकर, चाय पी कर 5:15 बजे कालापानी के लिए निकल गया रस्ते में मैंने आईटीबीपी मंदिर में दर्शन किये और अपने राह पे चल दिया। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, हरियाली कम होते जा रही थी। केवल पत्थर चट्टान ही दिखाई दे रहा था। काली नदी के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। लगभग ३ घंटे चलने की बाद हम काली नदी के उदगम स्रोत पर बने कालीमाता के मंदिर पर पहुँच गए। काली नदी में बने पुल से नदी पारकर कालापानी पहुंचे। सरोवर के किनारे रास्ते पर चारों ओर रंगीन पेपर की झंडियाँ लगायी हुयीं थीं। छोटे-छोटे पत्थरों को लाल रंगकर उनसे सरोवर के जल में ऊँ लिखा हुआ था। काली नदी भारत और नेपाल की सीमा रेखा बनकर दोनों को पृथक करती है। मंदिर के सामने एक पहाड़ में बहुत ऊँचाई पर एक कंदरा/ गुफ़ा थी। जहां पर आईटीबीपी द्वारा पहचान हेतु झण्डा भी लगाया गया है। उक्त सुराख को ‘‘व्यास गुफा” बताया गया। इसी गुफा में महामुनि व्यास द्वारा वर्षों तपस्या की गयी है।

काली नदी के उद्गम स्थल कुण्ड जैसा है उसी के पास काली माता की प्रतिमा स्थापित हैं। कुण्ड एवं विग्रह दोनो गर्भगृह में है। गर्भगृह के बाहर हॉल है बाजू में कालीमाता मंदिर के गर्भगृह के बाजू में ही भोले बाबा शिव का भी मंदिर है। दोनों के लिए हॉल एक ही है। मंदिर के बाहर बड़ा सा कुण्ड बना हुआ है जिसमें मंदिर के अन्दर से पानी बहता हुआ आकर एकत्र होता है। फिर वही पानी बहते हुए आगे जाकर नदी में मिल जाता है यहां से यह नदी कालीनदी कहलाती है। बताया गया कि यह नदी 6 माह भारत सीमा में तथा 6 माह नेपाल में बहती है।

मंदिर से दर्शन कर, प्रसाद ग्रहण कर इमीग्रेशन के लिए प्रस्थान किया और फॉर्म भर कर, पासपोर्ट पर इमीग्रेशन करवा कर, कालापानी कैंप में आये। जहा बुरसँ के फूलो का शरबत ताज़गी देने के लिए तैयार थे। यही पर हम लोगो ने नास्ता किए और थोड़े विश्राम के बाद नवींढांग के लिए प्रस्थान किया।

वातावरण ठंडा होने लगा था, पर मै अभी विंडचीटर से ही काम चला रहा था गरम कपडे बैग में महिंदर पोनी वाली को दे दिए थे जो नवींढांग में काम आने थे।

कालापानी से नबीढ़ांग की दूरी 9 कि.मी है। नवीढांग के रास्ते में हरियाली कम दिखी किन्तु घाटी में रंग-बिरंगी फूल जरूर दिखे। ऊँ पर्वत के दर्शनों का लोभ लिए सभी जल्दी से जल्दी नवींढांग पहुचना चाह रहे थे। नवीढ़ांग के रास्ते में लगभग चारों तरफ बर्फ से ढ़ंकी हुई पहाड़ी चोटी दिखलाई दे रहे थे। जिसके आसपास काफी कोहरा भी था। लगभग 11.30 बजे मैं ‘‘नवीढ़ांग” पहुंच गया।

मेरे दांत का दर्द बढ़ गया था कोंबिफ्लामे भी ४ घंटो से ज़यादा आराम नहीं दे रहे थी हम लोग वह दोपहर का भोजन किया। सेटेलाईट फोन से घर बात की और पूरा दिन टकटकी लगाये ऊँ पर्वत के पूरे दर्शनों के अभिलाषा लिए बैठे रहे परन्तु सिर्फ आधे दर्शन हुए और शाम को वह भी खत्म हो गये। हिमालय की इस पहाड़ी में बर्फ जमने के बाद इस प्रकार दिखाई देता है जैसे किसी ने बर्फ से ऊँ लिख दिया हो।

हमें ब्रह्मा नाभि एवं त्रिशूल के अच्छे से दर्शन हुए. अन्तः मै दांत के दर्द के लिए ITBP के डॉ. ने ४ दिन के लिए मेडिसिन दी जिस से मुझे आने वाली दिनों में पूर्ण आराम आ गया। आज की ठण्डी एवं कल यात्रा के वक्त पड़ने वाले ठण्डी को देखते हुए और गरम कपड़ा निकले।

आज मुझे डोम में श्री अनुज, आशुतोष जी के साथ श्री बंसल जी, श्री अशोक जी, श्री बी.जी, श्री धवल बही, का सानिध्य प्राप्त हुआ। हमारे सह यात्री श्री बंसल जी ने स्वस्थ्य सम्बंधित कुछ कारणों से वापस जाने के निर्णय लिया। जो हमें अच्छा नहीं लगा परन्तु स्वस्थ्य सम्बंधित कारणों में लापरवाही गलत होती है, इसी लिए हम ने उनके इस निर्णय को सम्मान के साथ स्वीकार किया। श्री बंसल जी भले ही वापस लौट गयी परन्तु पूरी यात्रा उन्होने हमारी दिलो में रह कर की।

जैसे-जैसे शाम होते जा रही थी हवा में ठण्डकता एवं तेजी बढ़ती ही जा रही थी। रात्रि 8.00 बजे सभी यात्रियों के साथ भोजन किया, उसी समय सभी को बता दिया गया कि कल भारत सीमा पार कर चीन सीमा में प्रवेश करना है। चीनी अधिकारियों द्वारा 7.30 बजे सुबह सीमा पार कराने का समय निश्चित किया गया है। इसलिए समय का ध्यान रखते हुए आज रात्रि में (कल) 2.00 बजे अपनी-अपनी यात्रा प्रारंभ करेंगे तद्नुसार यात्री तैयार रहें। रात्रि 9.30 बजे जनरेटर बंद होने के पूर्व सो गया।



बारहवाँ दिन :- नवींढांग से लिपुलेख, तकलाकोट : 02/07/2014

लिपुलेखपास की ऊँचाई 5334 मीटर

तकलाकोट की ऊँचाई 3940 मीटर

नवीढ़ांग से ‘‘लिपुलेख पास” तिब्बत (चीन) सीमा की दूरी यद्यपि 7 कि.मी. ही है किंतु समुद्र सतह से 5334 मीटर (16500 फीट) ऊचाई में होने के कारण अत्यधिक ठंडी तथा तेज हवा चलती रहती है। इसके साथ ही भारतीय समय के अनुसार 7.30 बजे सुबह बार्डर पार करना निर्धारित होने से सभी यात्री यात्रा प्रारंभ करने के लिए रात्रि 1.30 बजे ही उठ गए। सभी को डोम में चाय लाकर दिया गया।

सभी ने शिव स्तुति की, भोलेनाथ के जयकारे लगाये और अपने दिलो में कैलाश दर्शन लिए कदम बड़ा दिए।

इनर से लेकर विंड-चीटर तक पाँच लेयर्स में कपड़े, हाथ-पैरों में डबल गल्व्ज़ और जुराबें, सिर पर मंकी कैप और स्कार्फ़ बाँध हुआ था। सब वेश बदलकर डाकू से लग रहे थे। थोड़ी दूरी पर ही पोनीवाले खड़े थे जिन्होंने यात्रियों को बिठाना शुरु कर दिया। पैदल चलने वाले यात्री सिपाहियों के साथ आगे बढ गए कुछ जवान पीछे थे। हम पोनी पर बैठकर चल पड़े। बड़ा ही सचे त हो कर बैठना थे। रात में घोड़े पर नींद बहुत आती है। और गिरने की पूरी सम्भावन होते है। नींद और रात दोने गहरा रही थी। सभी यात्री एक हाथ में लाठी एवं दूसरे हाथ में बड़ा टार्च लेकर चल रहे है। ऐसा लग रहा है जैसे रात में मशाल जूलूस निकला हो। पूरी यात्रा में बस इसी पल के फोटो नहीं निकाल सका।

अंधेरे में माइनस टेम्प्रेचर में साथ उड़ा ले जाने वाले हवा के झोंकों के बीच जूतों और बेंतों की टक-टक, और घोड़ो की हिन हिन से रास्ता गुंज रहा था। चलते-चलते कुछ दूरी पर एक टूटे से चबूतरे के पास हम लोग रुके और पीछे रह गए साथियो का इंतज़ार किया। हम लोग काफी मार्जिन से चल रहे थे। दिल कर रहा था। के चबूतरे पर सो जाऊ पर नींद से ज़्यादा बाबा के दर्शनों की ललक थी नदी/जल-धाराएं आदि सब पार करते हुए हम चलते रहे। हम लिपु बॉर्डर से ०.५ कि.म. पहले करीब २ घंटे पहले पहुंच गए अँधेरा काफी था। अब यही इंतज़ार करना था। क्यों की बॉर्डर और उचाई पर था। और वहाँ तेज़ हवाए चलती है। काफी देर हम टाइम पास करते रहे समय काटना थोड़ा कठिन थे। चारो तरफ तरफ१०/१५ फ़ीट बर्फ ही बर्फ थी। नींद से आँखे बोझिल हो रही थी।

पहाड़ों पर जल्दी दिन निकल आता है। आसपास पौ फटनी शुरु हो गयी। धीरे-धीरे धुंधलका कम होने लगा था। अब सब साफ़ दिखने लगा था। धीरे धीरे ६;३० बज गए हम लोगो बॉर्डर की तरफ चलना शुरू किया। ७:०० बजे तक हम बॉर्डर पर थे। पहाड़ियों पर लगे झंडे सीमा बन रहे थे, वरना पता भी नहीं चल रह था कि कौन सी हद से कौन सा देश शुरु होता है। सब एक सा …मनुष्य सीमा बनाता है पहाड़ और धरती नहीं। और चीनी अधिकारिओ के इंतज़ार कर रहे थे। सौभाग्य से आज ज़्यादा तेज हवा नहीं थी।

१ घंटे इंतज़ार के बाद चीनी गाइड " डिक्की”, "रिमझिम" आये और दूसरे बैच के यात्रीओका आना शुरू हो गया था। चीनी अधिकारी ऊपर नहीं आये। हम लोगो ने अब बॉर्डर पार कर चीन -अधिकृत तिब्बत में प्रवेश किया।

चीनी सीमा में यात्रा एकदम ढ़लान वाला है। रास्ता पूर्णताः पथरीला हैं, पेड़-पौधे आदि का नामो निशान नही है। बंजर पथरीला संकरा ढ़लान है, चीन साइड में बर्फ, भारत साइड से काफी ज़्यादा थी बर्फ पर चलना काफी मुश्किल होता है। यात्रियों के पैर स्लिप हो रहे थे मैं, श्री अनुज, श्री हेमांग, श्री अमित, श्री पिंकिन जी और यात्रिओ की मदद से ग्रुप को चीन साइड के बर्फीले रास्ते और ग्लेशियर को पार किया। सभी यात्री भोले की जय बोलते हुए फिसलते-लुड़कते हुए करीब ५ कि.म. चलकर जहाँ हमें लेने आयी बस खड़ी थी वहाँ पहुंचे, वहाँ चीनी अधिकारी मौजूद थे चीनी अधिकारी अपनी लिस्ट से एक एक का नाम बोलकर बुला रहे थे और नाम और पासपोर्ट के साथ चेहरा चहेरे को मिला कर टिक कर रहे थे। सामान्यतय यह प्रक्रिया ऊपर लिपु बॉर्डर पर होती है।

हम लोग बस से चीन के निकटम शहर तकलाकोट (पुरंग) के लिए रवाना हुए, मिट्टी के पहाड़ी-पठारी-मार्ग पर चढती उतरती धूल उड़ाती बस में बैठकर सुबह से थका शरीर बहुत कष्ट महसूस कर रहा था। बस बॉर्डर के मिलट्री-एरिया से गुजरते हुए तकलाकोट में प्रवेश किये। मेरे लिया हुआ चीनी सिम ने काम करना शुरू कर दिया था। हमारी बस तकलाकोट के कस्ट्म ऑफ़िस में दाख़िल हुयी हम सभी उतर कर कस्टम ऑफिस
में अंदर गए। हमने इमीग्रेशन फार्म भरा, फिर लाइन में लगकर अंदर गए जहाँ सामने दीवार पर इन्फ़्रा-रेड कैमरा लगा था, सभी का टेंप्रेचर रिकॉर्ड हो रहा था। बैल्ट-पाऊच और हैंडबैग्स भी एक्सरे मशीन से गुजारे। और सारी औपचारिकताएं पूर्ण करते हुए हम बस में आ कर बैठ गए।

पुनः बस में बैठकर तकलाकोट शहर में पुरंग गेस्ट-हाऊस की ओर चल पड़े। यहाँ नए और पुराने ब्लॉक में यात्रियों को रुकाया गया था। नया ब्लॉक कही ज़्यादा बेहतर था, हमे पुराना ब्लॉक मिला पुराना ब्लॉक ज़्यादा साफ़ नहीं था। परन्तु टीवी, गीज़र लगा हुआ था। हमारा सामान भी आ गया था। उसे उठा कर अपने कमरे में लाये और किसी तरह फ्रेश और स्नान कर के हम लोग तैयार हुए तो खाने का समय हो गया।

हम लोग भोजन-कक्ष में पहुँच गए। बड़ा सा हॉल जिसमें सात बड़ी गोल मेज लगीं थीं और चारों ओर कुर्सियाँ लगीं थी। सामने किचेन का दरवाज़ा था। जहाँ एक मेज पर उबले चावल और बंदगोभी गाजर की सब्जी, और भी एक २ सब्जिया थी। पास में ही खाली बाऊल, प्लेटें और चम्मच थे। भोजन सामान्य और ठीक था, चीन साइड में जो उम्मीद की थे उस से ज़्यादा ही था। खाना खा के और थोड़ा आराम कर के मार्किट शहर घूमने चले गए शाम हो गयी थी।

तकलाकोट जिसे तिब्बती में पुरंग और चीनी में बुरंग कहते हैं। हमें एक सुव्यवस्थित अवं साफ सुथरा शहर लगा, शहर में भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं है। सड़के चौड़ी एवं बढ़िया से बनी हुए है। सड़क में कही भी गन्दगी नहीं मिली। यह भारत एवं नेपाल की सीमा से सटा बड़ा शहर एवं बड़ा व्यापारिक केंद्र है। गुंजी से आगे मिलने वाला चाइनीज़ सामान यही से जाता है। खैर वापसी में होटल में मुझे wifi मिल गया था whatsapp पे ग्रुप को अपडेट करता रहा और आठ सौ डॉलर तो चीन-सरकार को देने थे, वह श्री शशि कुमार जी के पास जमा करवा कर और रात्रि का भोजन कर सो गये।



तेरहवाँ दिन :: 03/07/2014

एक दिन तकलाकोट में

सुबह आराम से सोकर उठे। 8.00 बजे नाश्ता के लिये बुलाया गया। हम लोग नाश्ता के लिए डायनिंग हॉल में पहुंचे। पिछले व्यस्त भरे दिनो में हमारे श्री प्रफुल्ला भाई, श्री सुरेश उपाधय जी, श्री अशोक व्यास जी, श्री आशुतोष जी का जन्मदिन इस दौरान पड़ा था उनको बधाईया दी गयी। ओल्ड ब्लॉक में बाथरूम में नहाने का मन नहीं था। अमित नए बलॉक में था तो हम उस के रूम में नहाने चले गये। पिछले कई दिन के कपड़े निकाल कर धो दिए सीढ़ियों की ग्रिल व डोरी पर सब जगह कपड़े सूखने डाल दिए।

मुझे अपने दांतो की दवाई भी लेनी थी। मैंने चीनी गाइड की हेल्प ली मुझे सिर्फ एक दवाई मिल पायी। बाज़ार में ज़्यादा बड़े शॉरूम के अलावा छोटी दुकानें भी थीं। घूमते-घूमते हम काफ़ी दूर चले गए। आगे जाकर नेपाली मार्केट था, जहाँ जैकेट, स्वेटर, शॉल, स्कार्फ़ इत्यादि की दुकानें थीं। वे सामान खरीदने पर युवान के अलावा रुपए भी ले रहे थे। हम लोगो ने फ़ूड कमेटीके साथ आनेवाले दिनों के लिए काफ़ी सारी सब्जी खरीदीं।

अगले की यात्रा के बाद यहीं वापिस आना था। सो ज़रुरी सामान ही आगे लेजाने की सलाह देते हुए फालतू सामान को एकसाथ एक बोरे में भरकर अपने दल का न० लिखकर गाइड रिमझिम को सौंपने को कहा। पोनी पोर्टर के लिये फाइनेंस कमेटी के पास युवान जमा करने थे। मैंने पोर्टर लेने का निर्णय लिया और युवान जमा करा दिए।

तीर्थयात्रा के तिब्बत-प्रवास में चीन सरकार द्वारा तीर्थ यात्रियों को किसी भी प्रकार की मेडिकल सहायता प्रदान नहीं की जाती। दिल्ली और गुंजी से ही डॉ. ने हमें संभावित परेशानियों को ध्यान में रखकर दवाइयाँ इत्यादि अन्य सामान रखने की सलाह दे दी थी। हम उन पर ही आश्रित थे। शाम हमने गेस्ट हाउस के ऊपर बने कॉफ़ी हाउस में श्री आशुतोष जी एवं श्री अनुज जी के साथ बितायी। सामान पैक किया और रात्रि के भोजन के बाद निद्रा की गोद में चले गये।





चौदहवाँ दिन :: 04/07/2014

तकलाकोट से दारचेन

दारचेन की ऊँचाई - 4670 मीटर

आज 5.00 बजे सुबह उठकर तैयार हुए। 5.30 बजे नाश्ता के लिए डायनिंग हॉल गए। नाश्ता उपरांत गेस्ट हाऊस के कमरे से लगेज दो बार करके नीचे बस तक लाये। लगेज ट्रक में चढ़ाया गया। चाबी हम लोगो ने काउंटर पे जमा कर दी। शिव स्तुति और जयकारे के बाद हम सभी बस में चढ़ गये और बस चल दी।

बस तकलाकोट से निकलकर खेतों और करनाली नदी के किनारे पहाड़ी रास्तो की चढाई चढ़ते हुए चल रही थी सड़क पक्की थी ट्रैफिक बहुत कम था कभी कभी कोई गाड़ी दिख जाते थी। निर्जन, वीरान एवं बंजर भूमि हल्की पहाड़ी तथा सपाट मैदान से होकर हमारी बस जा रही थी दूर-दूर तक हरियाली नजर नही आ रही थी। तिब्बत के पठार का नज़ारा कम सुंदर नहीं था। ऊपर सफ़ेद बर्फ़ से ढ़की चोटियाँ तो नीचे मटमैले पठारों की चोटियों हम तिब्बत की प्राकृति को निहारते चले जा रहे थे।

काफी देर चलने के बाद हमारी बस एक झील के किनारे रुकी। झील काफी नीचे पर थी। इस झील का नाम राक्षसताल बताया गया मान्यता है कि रावण द्वारा इसी झील के किनारे बैठकर भगवान शिव की कठिन तपस्या किया गया है। इसलिए इस झील को ‘‘रावण ताल” या “राक्षसताल” भी कहते हैं रावण के कारण राक्षस-ताल अभिशप्त मानी गयी है। किंवदंतियों में इसके जल को विषैला बताया गया है, इसलिए इसके जल का स्पर्श वर्जित माना गया है। यहाँ से कैलाश पर्वत के पहले दर्शन होते है परन्तु बदलो में छुपे होने के कारण हमें दर्शन का सुख प्राप्त नहीं हुआ था। काफी यात्री नीचे तक गये, डॉ. सुभाष ने राक्षसताल में स्नान भी किया।

बस चल पड़ी और थोड़ी देर बाद हमें मानसरोवर झील दिखयी दी। थोड़ी देर में बस मानसरोवर झील के किनारे जा कर रुकी और हम सभी ने सुबहे स्नान कर लिए था। परन्तु ऐसा सौभाग्य नहीं छोड़ सकते थे। हम सभी ने स्नान और स्तुति की, कैलाश अभी भी बादलो की ओट में थे। थोड़ी देर बाद हम लोगो ने दारचेन शहर के लिए प्रस्थान किया दारचेन कैलाश परिक्रमा का बेस कैंप है हमें शहर के बाहर रोक गया, बस और सामान चेक हुआ और हम लोगो ने शहर में प्रवेश किया।

दारचेन तिब्बत का एक छोटा सा Town पर कैलाश यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है। जहाँ से कैलाश की 48 किमी परिक्रमा शुरू होती है। यहाँ से यमद्वार आठ किलोमीटर है। दारचेन के दक्षिण में गुरलामांधाता पर्वत है। दारचेन से ही अष्टपद एवं कैलाश INNER कोरा के लिए जाया जाता है।

भोले नाथ की कृपा से यहाँ से कैलाश के अद्भुत त्रिनेत्र दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मौसम सुहावना था। धुप भी थी, ठंडी हवा भी, पर हम भोले के दर्शनों से ही प्रफुल्लित और कल से शुरू होने वाले यात्रा में रोमांचित थे।

हम लोग दरचन पहुंचे हमारी बस बांऊण्ड्रीवाल से घिरा हुआ भवन के पास जाकर रूकी कैलाश यात्रियों को इसी गेस्ट हाऊस में रूकवाया जाता है। बस के रूकते ही हम लोग अपना-अपना लगेज उतार कर गेस्ट हाऊस में दाखिल हुए। बस से उतरते ही तिब्बती महिलाएँ अपनी पारंपरिक वेशभूषा में भागकर हमारे कमरों तक आ गयीं और मोती/स्टोन की बनी मालाएँ और अन्य आभूषण बेचने हेतु प्रदर्शित करने लगीं। लोगो ने जम कर खरीदारी की।

सभी कमरे में प्रायः 4-4 बेड लगे हुए थे। थोड़ी देर में चाय फिर दोपहर में खाना खा कर हम लोग दारचेन घूमने चले गये। पिछले वर्ष के मुकाबले दारचेन में काफी बदलाव महसूस कर रहे थे, इस बार काफी दुकाने, मार्किट बढ़ गया था, सुपर स्टोर के तरह से कुछ दुकाने आ गयी थी जो पिछले वर्ष नहीं थी। शायद इस वर्ष हॉर्स ईयर होने के कारण ऐसा था। रास्ते के लिए जूस आदि लेकर हम वापस आ गये। हॉर्स ईयर होने के कारण अष्टपद-दर्शन पर तिब्बत पुलिस ने रोक लगा रखी थी तो वह नहीं जा पाये। वहां से कैलाश की दक्षिण स्वरुप की बहुत अच्छे दर्शन होते है। पिछले वर्ष के अष्टपद से कैल्श के दर्शनों को अपने स्मृत्यो में लिए
हुए फिर बैग से ३ दिन की परिकर्मा के लिए सामान निकल कर पुनः पैक किया और शाम को श्री बाबू भाई की कीर्तन सभा का आनंद लिया। वहां सभी ने कुछ न कुछ भक्ति रास से परिपक़्व
सुनाया, रात्रि भोजन के बाद हम लोग सोने चले गये।

आज श्री रवि जी की तबियत बिगड़ गयी थी। और वह काफी असहज महसूस कर रहे थी। पूरा ग्रुप उनकी तबियत के लिया चिंतातुर था।आज मुझे कमरे में बाबा अर्जुन सिंह, श्री आशुतोष जी का सानिध्य
प्राप्त हुआ।




पँद्रहवां दिन :: 05/07/2014

दारचेन से यम-द्वार, डेरापुख

यमद्वार की ऊँचाई - 4810 मीटर

डेरापुख 'की ऊँचाई - 4909 मीटर

सबेरे 5.30 बजे उठकर तैयार हुए। सभी यात्रियों का लगेज गेस्ट हाऊस के एक कमरें में ही रखा जा रहा था मैं भी अपना लगेज वही जाकर रख आया, चाय पिए। रास्ते के लिए तैयार किए गए बैग को लेकर बस में जा बैठा, ठीक 7.30 बजे बस आगे यात्रा के लिए रवाना हुई। हमारी बस पहाड़ी कच्चे रास्ते से होकर आगे बढ़ रही थी चारो तरफ सपाट बंजर भूमि नजर आ रही थी।

बस यमद्वार से पहले सिक्योरिटी चेक के लिए रुक गए थोड़ी दूर पर ही यमद्वार था आगे का रास्ता पैदल तय करना था। सभी यात्री बस से उतर गए सामने मंदिरनुमा गेट बना हुआ था। यम-द्वार सफ़ेद पुता हुआ था। उसके दोनों ओर छोटे-छोटे चबूतरे बने थे। तिब्बती लोग शरीर-त्याग के प्रतीक के रुप में अपने शरीर से बाल नोंचकर वहाँ अर्पित करते है। यही ‘‘यमद्वार” कहलाता है। मृत्यु के देवता यमराज के नाम से निर्मित
यमद्वार को सभी यात्री पार कर परिक्रमा कर अर्थात मृत्यु के देवता के पास से सकुशल पार कर मोक्ष दाता भगवान शिव के निवास स्थल ‘‘कैलाश” पर्वत के परिक्रमा हेतु पोनी एवं पोर्टर के अलॉटमेंट का इंतज़ार करने लगे।

श्री रवि जी हमारे साथ याम द्वार पर आये परन्तु उन्होंने अस्वस्था के कारण वापस लौटने का निर्णय किया, मैथली जी ने सच्ची अर्धांग्नी होने के प्रति स्वरुप उन्होंने रवि जी के साथ वापस दारचेन जाने का निर्णय लिया।

आगे चलने पर पहाड़ो पर जिनमें प्रकृति ने अपनी अद्भुत कलाकारी कर रखी थी। ऐसा लगता लगता था। कि अभी बोल पड़ेंगे हर पहाड़ में कोई न कोई आकृति नजर आएगी आगे जाने पर ब्रह्मा विस्णु, गणेश पर्वत के दर्शन हुए और आगे बढ़ने पर कैलाश के पश्चिम प्रभाग के दर्शन हुए, कैलाश के चारो स्वरूप अलग अलग है। और हार स्वरुप के साथ में नंदी विराज मान है।

हमें सामने से आते बौद्ध-अनुयायी परिक्रमा लगाते दिखायी दिए। वे हमसे विपरीत दिशामें चलकर परिक्रमा करते हैं। तो कुछ हमारे साथ हमारे साथ, हमारी दिशा से तो कुछ तो लेट-लेटकर परिक्रमा मार्ग पर जा रहे थे।

रास्ते में हमें तिब्बती मोनेस्ट्री दिखाई दी। आगे जाने पर हमें कुछ टेंट लगे दिखाई दिए, वह हम लोगो ने नमक वाली तिब्बती चाय पी और फिर आगे चल दिए। कुछ दूर जाने पर हमें डेरापुख दिखने लगा वहा पहुंच कर हम लोगो ने थोड़ा आराम किया तब तक खाना आ गया और हमलोग ल.ओ. श्री संतोष मेहरा के साथ में गुस्षुप करने लगे। हॉर्स ईयर होने के कारण तिब्बती पुलिस ने चरण-स्पर्श जाने पर रोक लगा रखी थी। सिर्फ १ कि.म तक जाने की परमिशन थी। कुछ लोग वह तक हो कर आये थोड़ी देर में खबर आयी की बाबा कैलाश नाथ हवन कर रहे है। हम लोग पहुंच गये कैलाश के ठीक सामने बैठ कर हवन करने का अनुभव ही अलग था। आहुतियाँ डालते जाये और कैलाश दर्शन करते जाये

बदल घिर रहे थे अँधेरे हो रहा था। थोड़ी देर बाद सूप आ गया फिर खाना और फिर सोने चले गए क्यों कि कल जल्दी उठना था कल का रास्ता अत्यंत जटिल था। आज मुझे कमरे में श्री आशुतोष जी, श्री अनुज जी एवं श्री राजेंद्रन (जिंदिगी भाई) का सानिध्य प्राप्त हुआ।



सोलहवाँ दिन :: 06/07/2014

डेरापुख से जुथुलपुक, दूरी 19 किमी

वाया डोलमा-ला पास (कठिनतम और उच्चतम चढ़ाई)

डोल्मा-ला पास की ऊँचाई 5750 मीटर

जुथुलपुक की ऊँचाई 4780 मीटर

आज यात्रा का सबसे कठिन और ऊँची चढ़ाई वाला भाग तय करना था। यहाँ मौसम पर निर्भर थे। कब बर्फ़ पड़ने लगे तो कब तेज बारिश कुछ भी सुनिश्चित नहीं होता। कल रात से ही बादल आ गए थे। सुबहे ४:३०
बजे हम उठ गए बाहर काफी ठंडक थी। कपडे जकड कर मोबाइल रुपी टोर्च के सहारे दैनिक-चर्या के लिए स्थान ढूंढ रहे थे। पर हर जगह कोई न कोई थी। शौचालय के अंदर जाने की हिम्मत न थी, अँधेरे और बाहर आते दुर्गेंध ने बाहर जगह देखने को मज़बूर कर दिया था। खैर किसे तरह शौचालय थोड़ी दूरी पर खुले में दैनिक निवर्त हो लिए।

बोतल में हल्का गर्म पानी ले आये थे तो बर्फ़ पिघले पानी से बच गये थे। फिर ब्रश वगैहरा कर के चाय पी और तैयार हो गये। तब तक मेरी पोर्टर भी आ गयी, अभी बाहर अँधेरा था बदली होने के कारण गोल्डन
कैलाश के दर्शन न हो सके। शिवे स्तुति कर मन ही मन शिव को याद करते हुए छड़ी के सहारे आगे चल दिए। हवा में तेज़ थी ठंडा अपने पूरे ज़ोरो पर थी सांस फूलना सामान्य बात थी। धीरे धीरे अहम बढ़ते रहे २ घंटे बाद सवेर होना सुरु हो गया था हम लगभग साढ़े पांच हजार मीटर चाई पर बहुत ही दुर्गम रास्ते को पार करते जा रहे थे। रास्ते में चारो तरफ सिर्फ चट्टान ही चट्टान एवं उसके ऊपर बर्फ के परत दिखाई दे रहा थी। पेड़ पौधे एवं हरियाली के नामो निशान तक नहीं था । हमें वहाँ कोई भी स्थानीय व्यक्ति या जानवर न मिला, पर इन टीलों में लोगों के पुराने कपड़े यहाँ-वहाँ फैले पड़े थे। कहते हैं यह शिव-स्थल है। यहाँ यमराज हमारे कर्मों का हिसाब करते हैं।

उन पठारी टीलों को पार करके हम खड़ी ऊँची पहाड़ी पर चढ़ने लगे। चढ़ाई मानों किसी दीवार पर चढ़ रहे हों। हम लोग डोल्पा पास पहुंचे जिसकी समुद्र सतह से ऊचाई 18600 फीट हैं इस स्थल को तिब्बती देवता डोमा के नाम से डोल्मा माता का स्थान भी कहते है। चारो ओर से उच्च्चतम पर्वत-मालाओं से घिरा, फैली हुयी विशालाकार चट्टानों/शिलाओं से पटा पड़ा विशाल दर्रा – डोलमा-ला पास!!! शिलाओं और चट्टानों के बीच- बीच में बर्फ़ जमीं थी। यहां सभी यात्री पूजा करते है। कोई जगह चलने के लिए नहीं थी। यात्री बर्फ़ से बचते हुए वहीं-कहीं बड़ा सा पत्थर देखकर उसपर पैर रख कर आगे बड़े जा रहे थे। यह स्थान समुद्र सतह से काफी ऊंचा है, तेज ठण्डी हवा है व साथ ही बर्फ भी जमा हुआ है। आक्सीजन कम हैं यहां मौसम कभी भी खराब हो जाता है। इसलिए यहां यात्रियों को अधिक समय तक रूकने की सलाह नही दी जाती। शिव की कृपा से मौसम अच्छा था।

अब हम डोलमा-ला पास से नीचे जा रहे थे डोलमा-ला पास से नीचे पैदल ही जाना होता है। थोड़ी ही दूर चलने के बाद पहाड़ी के नीचे घाटी में आपस में मिले हुए दो छोटे-छोटे तालाब जैसे दिखाई दिया। जिसमें का पानी हरें रंग का दिखाई दे रहा है। जिसके बारे में बताया गया कि यह ‘‘गौरीकुण्ड‘‘ है। मान्यता है कि इसमें भगवती मां पार्वती स्नान करती है। मै अपने पोर्टर के साथ नीचे गौरी कुण्ड गये, उसे से मैंने पहले से बता रखा था के मुझे नीचे जाना है। क्योकि यात्रियों को जल लाने हेतु नीचे खतरनाक फिसलन होने से जाने की सलाह नहीं दी जाती है। कुछ ही यात्री नीचे गये थे नीचे जाने का कोई रास्ता नहीं है। पथरो के ऊपर से अपने लिए रास्ता बनते हुए जाना होता है। श्री अनुज जी मेरे नीचे गौरीकुंड साथ गये। मैंने वह पूजा की और घर से लाये हुए वस्त्र और पूजा का सामान समर्पित किया। बाद में श्री राजेंद्र भाई भी नीचे पहुंचे। मुझे पूजा में समय लगता देख कर श्री अनुज जी आगे बढ़ गये मैंने अपने बोतल पोर्टर को जल भरने को दी।

गौरी कुण्ड से ऊपर आने का भी कोई रास्ता नहीं था। मै अपने पोर्टर को फॉलो करते करते पत्थरो के ऊपर कूदते हुए आगे बढ़ रहे थे। और डोलमा-ला पास से आते रास्ते में मिल गये पत्थरों पर चढ़ते-उतरते पैर और घुटने बिलकुल बेहाल थे। आगे हमने बर्फ के रास्ते पार किये और अब रास्ता उतराई का था काफी चलने के बाद हम ल्हाचू घाटी में पहुंचे। ल्हाचू घाटी हम समतल धरातल पर आ गये थे वहाँ एक छोटी सी दुकान भी थी। जिसमें कोल्डड्रिंक, पानी के बॉटल और चाक्लेट इत्यादि मिल रहे थे। मैं भी वहां रूककर थोड़ी देर विश्राम किया। थोड़ी दूर रूकने के बाद पुनः यात्रा प्रारंभ किए चलते चलते हम थके जा रहे थी। पर रास्ता था की खत्म नहीं हो रहा था। चलते चलते हमारी हालत बुरी हो चुकी थी। तभी अचानक मेरे देखते देखते श्री शशि कुमार जी को उन के घोड़े ने गिरा दिया पता चला। पहले भी उन के साथ ऐसा हो चुका है। उनका घोडा चेंज करा कर उनको आगे भेज दिया। और फिर उस अंत न होते रास्ते पर चल दिए।

चलते चलते अंतः हम जुथुलपुक कैंप पहुँचे। नदी किनारे थोड़ी दूर पर सामने एक लाइन में कई कमरे बने थे प्रत्येक कमरे में पांच बिस्तर लगे थे। कैंप पहुचने पर पता चला श्री शशि कुमार जी को घोड़े ने फिर गिरा दिया थी। उनको काफी चोट आँख के पास आयी थी। शायद टांके लगेंगे उन के हाल चाल ले कर मैंने चाय पी और अपने बिस्तर पे आ कर लेट गया थोड़ी देर में खाना खाया। बाद में पता चला की श्री शशि कुमार को दारचेन के हॉस्पिटल भेज दिया गया है। और वो दारचेन में श्री रवि जी और मैथिली जी के साथ वही मिलेंगे थोड़ी देर गपशप होते रही। ल.ओ. साहब भी अपने किस्से सुनते रहे। शाम को पानी गिरना शुरू हुआ जो देर रात तक गिरता रहा।

सामने के निचले मैदान में मेरी पोर्टर अपने साथियो के साथ टेंट लगा के रुकी थी। ऐसे पानी में रात कैसे कटी होगी पता नहीं हम लोग थके थे। तो जल्दी ही सो गये वैसे भी प्रकाश व्यवस्था यहां भी जनरेटर से किया गया जो कि रात 9.30 बजे तक ही उपलब्ध हुआ थी।

आज मुझे श्री आशुतोष जी के साथ श्री राजू भाई, श्री अशोक जी रतलाम वाले का सानिध्य प्राप्त हुआ।




सत्रहवाँ दिन : 07/07/2014

जुलुत्पू से दारचेन, कुगु

सुबहे ५ बजे उठ गये और सामने खुले मैदान में नित्य क्रिया से फारिग हो कर ब्रश किया चाय और नास्ता कर के ६:30 बजे तक चलने को तैयार हो गये। शिव वंदना और जयकारे के साथे यात्रा शुरू की रात में ऊचे पहाड़ो पर पड़ी बर्फ साफ़ नज़र आ रहे थी। कुछ दूर चलने के बाद मानसरोवर साफ़ दिखाई दे रहा था। करीब ५ कि.म. चलने के बाद हम ऐसे जगह पहुंचे। जहा बस हमारा इंतज़ार कर रही थी, यात्री आते जा रहे थे और कैलाश-परिक्रमा पूर्ण होने की ख़ुशी में गले लग रहे थे। हमारे ख़ुशी के आसुओ में बादल भी बाह चले थे हलकी बारिश शुरू हो गये थी। सभी बस में आ कर बैठ गये और बस दारचेन के लिए चल दी। मैंने अपने घर वालो को कैलाश-परिक्रमा पूर्ण होने की सूचना मोबाइल से दी. श्री अनुज जी ने भी अपने घर मेरी मोबाइल से बतायी।

कुछ देर में हम दारचेन पहुंच गये, श्री रवि जी, मैथली जी, और शशि कुमार जी बस में हमारे साथ आ गयी। मैथली जी ने बताया वह बीते हुए कल में अष्टपद हो कर आये है।

हमारी बस मानसरोवर के किनारे बने कुगु के गेस्टहाऊस के प्रांगण में बस रुकी। हल्का हल्का पानी गिरना शुरू हो गया था सभी शीघ्रता से नीचे उतर आए।

गेस्टहाऊस में पंक्तिबद्ध कमरे बने थे। सभी के दरवाजे प्रांगण में खुलते थे। और सभी की खिड़कियाँ मानसरोवर की ओर खुलती थीं प्रांगण के दोनो साइड्स में एक ओर दरवाज़ा बना था। मोनेस्ट्री की ओर, तो दूसरी ओर खुला क्षेत्र था। दोनों ओर से मानसरोवर झील के किनारे तक पहुँचा जा सकता था। हम लोग अपने कमरे में आ गये कमरा बहुत बड़ा था। साफ़-सुथरा और सज्जित। दरवाज़े के बिलकुल सामने पूरी दीवार की चौड़ाई में बड़ी खिड़की जिसपर कँच के डबल दरवाज़े थे। पूरी यात्रा का सबसे बेहतर कमरा था। कमरा और उस की साज सज्जा देख कर दिल खुश हो गया। हमारा सामान भी आ गया था। काउंटिंग के बाद अपना अपना सामान ले आये। बारिश लगातार हो रही थी ठंडक हो गयी थी। मानसरोवर में स्नान का मन था, परन्तु बारिश और ठण्ड के कारण विचार नहीं बन पा रहा था

तब तक खाना आ गया था। कुछ यात्री मानसरोवर में नहा कर कांपते हुए आते दिखे। हम लोग ने पहले मन की अग्नि से पहले पेट की अग्नि को शांत करने का विचार किया। खाना खाने २ घंटे बाद स्नान का विचार बना करीब शाम कि ४ बज रहे थे। बारिश अपने गति से गिर रही थी। मै और आशुतोष जी छाता लेकर मानसरोवर पर जा कर स्नान किया और भागते हुए वापस आ कर गरम कपडे पहने।

शाम को बारिश बंद हुए तो थोड़ा बाहर निकले और मानसरोवर के किनारे चहल कदमी की और रात का खाना खा कर सोने चले गये। बताते है ब्रह्मसरोवर में स्नान हेतु देवगणों ब्रह्मा महूर्त में रोशनी के रूप में आते है। बादल बहुत छाए थे तो आज दर्शन न हो पायेगे। इस लिए सोने चले गये।

आज मुझे श्री आशुतोष जी, श्री अनुज जी के साथ श्री राजेंद्रन भाई और श्री मुथु जी का सानिध्य प्राप्त हुआ । रात्रि में श्री अनुज जी की आवाज से निद्रा भंग हुयी उन्होंने ऊपर से नीचे आते हुये रोशनी देखी। हम सभी लोग १ सेकंड में खिड़की पर थे।

उसके बाद श्री अनुज जी के "ओम नमः शिवाय" की अविरल धरा से सराबोर होते रहे और पता नहीं चला के कब आँख लग गयी।



अट्ठारहवाँ दिन : मानसरोवर :: 08/07/2014

आज आराम से सो कर उठे और जल्दी से दैनिक क्रिया से निवृत हो कर नास्ता किया और मानसरोवर किनारे चला गयापानी काफी ठंडा था, मानसरोवर के सुबहे के अलौकिक दृश्यों कि फोटो लेते रहे आज आसमान साफ़ था कैलाश पर्वत की साफ़ दर्शन हो रहे थे, वापस आ कर कपडे निकाल कर मानसरोवर स्नान कि तैयारी कि कुछ सहयात्री तो ९ बजे ही नहा लिए थे हम करीब १०:३० बजे पानी के थोड़ा गरम होने पर नहाये मैंने अपने परिवार के सभी सदस्यों के नाम से डुबकी लगायी २/३ डुबकी में ही मेरा सिर सुन्ना होने लगा परन्तु आस्था के वशीभूत सभी के नाम से डुबकी लगायीसूर्य देव को अर्घा दिया

अपने पितृ पक्ष और मातृ पक्ष के पूर्वजो की अधोगति के लिए प्रार्थना की और जल चढ़ाया और तैयार हो कर बाबा कैलाशनाथ की नेत्तृवः में होने वाले हवन में पहुंचे। सभी लोगो ने मिलकर हवन की तैयारी की और मानसरोवर और कैलाश की समक्ष आहुतिया दी और प्रसाद ग्रहण किया।

दोपहर की भोजन की बाद मानसरोवर के अलौकिक प्राकतिक आनंद और कैलाश से दर्शनों से अधिभूत होते रहे। किचन से आटे की गोलिया बनाकर मानसरोवर में मछलियो को डाली और शिव पूजा की। शाम
को कैलाश की किनारे किनारे काफी दूर तक निकल गए और पत्थर एकत्र किये फिर मोनेस्ट्री में दर्शन किये।

रात्रि की भोजन की बाद जल्दी सो गए ताकि अर्ध रात्रि में उठ कर ब्रह्मसरोवर में स्नान हेतु देवगणों के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ। मै और आशुतोष जी रात्रि भर आसमान में होती आतिशबाजी देखते रहे और ४ बजे सो गए।



उन्नीसवाँ दिन :: 09/07/2014

मानसरोवर से तकलाकोट

सुबह साढ़े पांच बजे उठकर दैनिकचर्या से निपटकर नास्ता किया और मानस दर्शन किये सूरज की पहली पहली किरणे मानस पर पद रही थी ऐसा लगता था। कि मानस का जल न होकर मानों स्वर्ण-रजत
जलाशय हो!!!

शिव स्तुति एवं " ओम नमः शिवाय" के उद्घोष के साथ ७ बजे हमारी बस चल पड़ी। बस में बैठे-बैठे हम सभी यात्री एक-दूसरे को अपने-अपने यात्रा अनुभव सुनते-सुनाते रहे। हमारी बस मानस और स्कंद की मोनेस्ट्री को पीछे छोड़कर आगे दौड़ रही थी। थोड़ी देर में मानस दर्शन कम हो गए और राक्षस-ताल दिखेंने लगा। हमारी बस ऐसे जगह रुकी जहा से मानस ताल, राक्षस-ताल दाये और बाये थे।

लगभग २ घंटे चलने के बाद आसपास हमारी बस सड़क के बायीं ओर साइड में जाकर खड़ी हो गयी। गुरु ने सभी से नीचे उतरने को कहा। थोड़ा सा लगभग सौ मीटर अंदर जंगल में गए। वहाँ छोटे-छोटे पत्थरों को चुनकर गेरु जैसे रंग से पुता हुआ एक मंच/चबूतरा सा बना हुआ था। जिस पर मठ की भांति तिब्बती-परंपरा की तरह कपड़ों की झंडियाँ बांधी हुयी थीं।

हम सभी वहाँ एकत्र हो गए। पता चला कि वह ’तोय’ गांव है और वह चबूतरा भारत के वीर बलिदानी सेना-नायक ज़ोरावरसिंह की समाधि है। वीर ज़ोरावर सिंह लद्दाख को भारत का अभिन्न हिस्सा बनाने के अभियान का हीरो था।

स्थानीय भाषा में उसे सिंगलाका चौतरा कहा जाता है। गुरु के अनुसार स्थानीय लोगों में उस समाधि की बड़ी मान्यता है। वहाँ समाधि पर आने से उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण होजाती हैं। हम सभी ने सच्चे मन से उस सैनानी को अपनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित की और ज़ोरावर सिंह के बलिदान को मन में संजोय हम बस में बैठकर आगे चल दिए।

हमारी बस तकलाकोट को पार कर खोजरनाथ के रास्ते पर चल पड़ी खोजरनाथ में स्थित प्राचीन हिन्दु मंदिर गए वहां राम लक्ष्मण सीता के आदमकद मूर्ति तिब्बती स्वरुप में स्थापित है। खोजरनाथ तकलाकोट से लगभग 20 कि.मी. दूर है। कतारबद्ध होकर सभी यात्री दर्शन किए, मंदिर अत्यन्त में अंदर मूर्तियों के सिंहासन के चारों ओर अति संकीर्ण परिक्रमा-मार्ग था। जिसमें बिलकुल गुपागुप्प अंधेरा था। पहले तो डर लगा फिर चले गए अंदर और परिक्रमा करके बाहर आगए। हिन्दु मंदिर के बाजू में ही गोम्फा है। जहां बुद्ध की आदमकद प्रतिमा स्थापित है। सभी यात्री वहां भी दर्शन किये यहां भी लकड़ी में कलाकृति बने हुए देखे।

करीब १ घंटा खोजरनाथ खोजरनाथ में बिताने के बाद हम तकलाकोट के लिए रवाना हो गए। सभी यात्री तिब्बत के पठारों के प्राकृतिक नज़रो को कैमरे में कैद करने में लगे थे। जल्दी ही हम तकलाकोट पहुंच गए अपने कमरो में जा कर स्नान किये और लंच किये फिर शॉपिंग करने निकल गए क्योंकि हमें अपने लगेज वापस पैक कर के कस्टम क्लेरेंस के लिए ३:३० PM तक जमा कर देना था। और अपना पिट्टू बैग हल्का रखना था क्यों की वजह हमें ही ले जाना था।

शाम को थोड़ा बाजार फिर घूमे और रात्रि का भोजन कर सो गए।



बीसवाँ दिन :: 10/07/2014

तकलाकोट से लिपुलेख पास, नवींढांग, काला पानी, गुंजी

आज हमें अपने देश, अपनी धरती पर वापस जाना था। भारतीय समय के अनुसार हम ३:३० बजे उठ गए दैनिक नित्य कर्म से निवृत और स्नान कर हम ५ बजे अपने कमरो के चाबियाँ जमा कर तैयार थे । सुबहे की चाय हल्का नास्ता लिया और शिव स्तुति के साथ हमारी बस चल पड़ी।

थोड़ी देर बाद हमारी बस कस्टम ऑफिस के बाहर थी। परन्तु वह लाइट न आने के कारण स्कैनिंग मशीन नहीं चल रही थी। तो बस की मैन्युअल चेकिंग के बाद हमें जाने की परमिशन मिल गयी और हमारी बस भारत-चीन बॉर्डर लिपु पास की तरफ चल पडी। पहाड़ी उबड़ खाबड़ रास्तो पर चलते हुए हमारी बस पहाड़ों से घिरे एक सुनसान स्थान पर जाकर रुक गयी। वह चीनी अधिकारी मौजूद थे उन्होंने मेरे पासपोर्ट से मेरे चेहरे के मिलान और वीसा से नाम मिलान के बाद मेरा पासपोर्ट मुझे वापस कर दिया जो कल तकलाकोट में जमा हुआ था। अब हमें जीप में बैठ कर जाना था। तिब्बती ड्राइवर ने गाड़ी को स्टार्ट किया चलने लगा। इतना पतला रास्ता ऐसा लगता था की गाड़ी अब लुढ़की और तब लुढ़की। आधे घंटे दौड़ने के बाद वह रुका अब हमें पैदल जाना था। आगे का रास्ता फिसलन भरी बर्फ से भरा था। आगे बढ़ने पर देखा की श्री पिनकिन भाई , श्री रवि जी और श्री राजू भाई को सहारा दे कर ले जाने की कोशिश कर रहे है। मैंने राजू भाई का हांथा थम लिया और पूरा रास्ता पार करा कर लिपु पास के पार होने के बाद छोड़ा।

मेरे पोनी वाले ने अपने भाई को भेजा था। ऊपर पहुंच कर मैंने अपना बैग उसी थमा दिया और अपने सांसो को नियंत्रित करने लगा। हल्की धूप निकल आयी थोड़ी ठण्ड भी कम हो गई इसके अलावा हम अपने वतन में सकुशल लौट आए इस सबकी विशेष अनुभूति हद्य में हुई। थोेड़े समय के विश्राम के साथ मै नवींढांग की तरफ पैदल चल पड़ा।

मैं 9.15 बजे सुबह नवीढ़ांग कैम्प पहुंच गया कुछ यात्री भी पहुंच चुके थे। तथा शेष लगातार आ ही रहे थे। नवींढांग से हमें ‘ऊं’ पर्वत के स्पश्ट दर्शन हो रहे थे। काफी देर हम ‘ऊं’ पर्वत से दर्शनों के लिए भगवान को धन्यवाद देते रहे क्यों की आते वक़्त पुरे दिने के इंतज़ार के बाद भी ऐसे दर्शन नहीं मिले थे। काफी देर फोटो और ‘ऊं’ पर्वत की छवि को अपने आखो में बसाने के बाद हमने ने नास्ता किया। और काला पानी के लिए
प्रस्थान किया रास्ते में हमें नाग नागिन पर्वत के भी दर्शन हुए और निरंतर चलते हुए हम १२ बजे कालापानी पहुंच गये और बुरांश का प्रिया शरबत जी भर कर पिया। दोपहर के भोजन और थोड़े विश्राम के बाद हम इमिग्रेशन क्लेरेंस करा कर काली माता के चरणो में अब तक की निर्विघ्न यात्रा एवं दर्शनों के लिए धन्यवाद एवं आगे के जीवन के आशीर्वाद की कामना लिए मंदिर में प्रवेश किये।

थोड़ी देर बाद हम गुंजी के लिए निकल पड़े। आज की यात्रा काफी लम्बी और थकाने वाले थी। २ कि.म. चलने के बाद अब चलना मुस्किल हो गया था। किसी तरह गिरते पड़ते हमने आगे के ७ कि.म. की यात्रा की और गुंजी प्रवेश किया। आज कुल २६ कि.म. चले थे। हम गुंजी कैंप जाते समय हम ने आई टी बी पी कैंप में माता मंदिर में दर्शन किये और ४ बजे कैंप में पहुंचे।

पहुँचते ही चाय आ गयी फिर थोड़ा आराम किया और तब तक हमारा सामान आ गया। उसे ले कर कमरे में लाये आगे के रास्ते के लिए सामान निकाला और वापस पैक कर दिया। आदि कैलाश से वापस आये हुए यात्रिओ से मुलाकात हुयी। आईटीबीपी के द्वारा आज यात्रियों के वापस आने की खुशी एवं स्वागत में मंदिर में भजन व वही पर पास में ही ‘‘बड़ा खाना‘‘ का कार्यक्रम रखा गया है।सभी यात्री कैम्प से नीचे स्थित कालीमंदिर गए एवं भजन आरती में शामिल हुए। उसके पश्चात रात्रि 8.00 बजे रात्रिभोज (बड़ाखाना) मे सम्मिलित हुए। सभी यात्री आनन्दपूर्वक भोजन किए एवं वापस 9.30 बजे आकर सो गए। आज श्री अनुज जी के पैर में मोच आ गयीथी। तो श्री संतोष मेहरा जी (ल.ओ.) ने श्री अनुज, श्री शशि कुमार, जिन के टांके लगे थे और दीदी राज लक्ष्मी, जो बैक पैन से परेशान थी, के हेलीकॉप्टर से कल धारचूला जाने
का इंतज़ाम कर दिया था।




इक्कीसवाँ दिन :: 11/07/2014

गुंजी से बुद्धि

सुबह पाँच बजे कमरे में ही चाय आ गयी हम उठे और दैनिक कार्यों से निपटकर हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गए। नाश्ता तैयार हो गया था, यात्री भोजन-कक्ष में पहुँच रहे थे। साढ़े छः बजे सभी तैयार होकर अपने बैग के साथ अहाते में खड़े हो गए। शिव स्तुति और " वीर बजरंगी" एवं "ओम नमः शिवाय" के जयकारे के साथ हमने चलना शुरू किया। पुल पार करने पर मैंने और आशुतोष जी ने जलेबी का

सुस्वाद लिया, रोज़ के रूटीन नास्ते से कुछ आज अलग खाने का मन था। हमने काली नदी के किनारे किनारे चलना शुरू किया साढ़े सात बजे हम सीती गाँव आ गया। जहाँ जाते समय हमने लंच किया था। पहले से ही कई यात्री वहाँ बैठे हुए थे।परन्तु हम वहाँ न रुक कर आगे बढ़ गए मौसम साफ़ था धूप तेज थी, खुली धूप में गर्मी भी हो रही थी। पर नदी किनारे चलते चलते प्रकृति मनमोह रही थी। चलते चलते हम गर्ब्यांग आईटीबीपी चौकी पर पहुँचे।

आईटीबीपी चौकी पर हमारी मुलाकात बैच ७ के कैलाश दर्शन को जा रहे यात्रिओ से हुए। हम सबने उन्हें यात्रा निर्विघ्न पूरी करने हेतु शुभकामनाएँ दीं और हौंसला बढ़ाया।

गर्ब्यांग गाँव की गलियों से जाते समय पहाड़ियों पर बने उनके पंक्तिबद्ध घर दर्शनीय थे। जाते समय की तुलना में अब ज़्यादा रौनक थी। गर्ब्यांग से आगे ऊँची चढ़ाई थी जहाँ बहुत संकरा रास्ता था। और आगे बढ़े तो फिर वही हरियाली से भरी छियालेख घाटी कहीं अधिक हरियाली थी। जंगली फूल खिले थे। सौंदर्य मोहक था! पैदल चलने वाले सहयात्री रुक-रुककर दृश्यों को निहार रहे थे।

छियालेख घाटी में हमने दोहपर का खाना खाया और आगे चल दिए, थोड़ा चलने के बाद तीव्र उतराई थी वह से बुद्धि गाँव साफ़ दिखा रहा था। करीब १.५ घंटे उतरने के बाद हम बुद्धि कैंप में थे। संतरे का शरबत हमारा इंतज़ार कर रहा था। थोड़ा आराम करने के बाद हम बाहर आ गए बाहर पूरी मण्डली जमा थी। सभी लोग अपने अपने पुराने संस्मरण सुना रहे दे, पता नहीं चला कब हम श्री बलवान जी के चुटकलों में बह चले।

कल के लिए प्लान हुआ की हम लोग गाला न जा कर मांगती नाला हो कर धारचूला जायेगे यदि सब कुछ ठीक रहा तो। मौसम बदल रहा था। बादल आने लगे थे। हलकी बारिश सुरु हो गए हम लोग रात्रि का खाना खा कर सो गए।



बाइसवाँ दिन :: 12/07/2014

बुद्धि से मालपा, लखनपुर, जिप्ती, मंगती, धारचूला(वाया तवाघाट)

कल रात को हुई चर्चा एवं निर्देंश अनुसार प्रायः सभी यात्री रात ४.00 बजे उठ गए। चाय डोम में ही लाकर दिया गया। नित्य क्रिया से निवृत हो तैयार हुए। हम लोगो को ५:०० बजे रवाना होना था। आकाश में बादल घिरे हुए थे। तभी बारिश शुरू हो गए हम ने बरसाती पहनी बैग को कंधे पे लादा और बरसाती पहन ली। भोलेनाथ ने पूरी यात्रा में कही भी बरसाती नहीं निकलवाए थी। आज आखरी पैदल यात्रा दिन में उन्होंने बरसाती की उपयोगिता का अहसास करा दिया था।

बुधी से आगे का रास्ता काफी सकरा खतरनाक घाटी एवं तेज बहाव वाले झरनायुक्त है। बारिश से फिसलन और पहाड़ों से आता बारिश का पानी बहुत कठिनाई उत्पन्न कर रहे थे। बरसाती पहने होने से शरीर तो भीगने से बच गया था। धीरे-धीरे मौसम साफ़ होने लगा था करीब १ घंटे के बाद बारिश बंद हो गए थी। पर रास्ते में कींचड़ तो जस की तस थी। बीच छतरी झरना, झरने में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक पानी बह रहा रहा था। इसलिए सावधानी पूर्वक धीरे-धीरे हम लोग आगे बढ़ते गए। लगभग 2.30 से 3 घंटे चलने के बाद हम लोग कुछ समतल मैदान जैसे भू-भाग में पहंचे यह मालपा कैम्प है। कुमाऊ मंडल विकास निगम द्वारा यात्रियों के लिए यहां एक छोटे से होटल में चाय-नाश्ता का इंतजाम किया गया था। सभी यात्री यहां पहुंचकर नाश्ता के साथ-साथ

थोड़ा विश्राम कर रहे थे। श्री प्रफुल्ल भाई की तबियत ख़राब हो गई थी। उनके पेट में दर्द हो रहा था। उनको श्री आशुतोष जी के घोड़े से आगे भेजा।

मालपा में 1998 में हुई दुर्घटना में मृत यात्रियों के याद में स्मारक बनाया गया है। वही से पार कर आगे बढ़े। रास्ता जाते समय से भी कठिन लग रहा था। जगह-जगह से पगडंडी टूट रहीं थीं किसी-किसी जगह एक-डेढ़ फुट जगह ही पैर रखने की थी। और बिलकुल नीचे चिल्लाती काली कालरुपा बनी आगे का रास्ता पथरीला, पहाड़ी सकरा होने के कारण पैदल ही बढ़े। रास्त में दाहिनी तरफ पहाड़ी जिसके ऊपर से स्थान-स्थान पर
झरने गिर रहे थे। तथा बांयी ओर काफी नीचे (300-400 फीट) पहाड़ी काली नदी तेज रफ्तार से बह रही थी। पानी गिरने से पगडण्डी फिसलनयुक्त हो गया है। अत्यन्त सावधानी पूर्वक धीरे-धीरे चलते हुए हम लोग आगे पैदल ही बढ़ें जा रहे हैं।

हम लोग लखनपुर पहुंचे। यहां पर थोड़ा विश्राम किए। यहां से दो रास्ता हो जाता है। एक रास्ता पहाड़ी के ऊपर से होते हुए गाला जाता है। इसी रास्ते से हम लोग कैलाश मानसरोवर परिक्रमा के लिए जाते हुए आए थे। तथा दूसरा रास्ता पहाड़ी से नीचे नदी की ओर उतर कर नदी के किनारे-किनारे ही सीधा मंगती जाता है। यदि हमारे साथ आई.टी.बी.पी. के जवान न होते तो हमें न मालूम चलता की यहाँ से नीचे जाना है। नीचे जाने कोई रास्ता थी ही नहीं बस पत्थरो के ऊपर से जाना होता था। इसलिए लखनपुर से हम लोग पहाड़ी रास्ते से सावधानीपूर्वक नदी की ओर नीचे पैदल ही उतरे तत्पश्चात नदी के किनारे-किनारे ही चलते रहे बीच बीच में हमने पहाड़ो से गिरे मलवे को ऊपर से पैदल पार किया।

फिर एक पहाड़ से नीचे पहुंचे जहा से हमे कम से काम २००-२५० फ़ीट की चढाई चढ़ने थी। वह भी खड़े चढाई किसी तरह हमने वह चढाई चढ़ी फिर करीब १ कि.म. तक आगे चले वह पर कुछ दुकाने थी। एक दो होटल थे, कुछ यात्री वहाँ बैठे धारचूला के लिए जीप का इंतज़ार रहे थे। वहां पर हमारा खाने का इंतज़ाम था। हमने खाना खाया और जीप का इंतज़ार करते हुए पूरी यात्रा संस्मरण बाटते रहे। जीप आने पर हम लोग ५ बजे तक धारचूला पहुंचे धारचूला पहुंच कर जमा सामान उठाया और हमारे बैग भी आ गये थे। काउंटिंग के बाद उठा कर सामान अपने कमरे में पहुचाया और नहाने चले गये

नहा कर हल्का फील कर रहे थे। बाहर बारिश हो रही थी। कपडे सूखने डाले और फिर २ दिन तक सामान पिट्ठू बैग में निकल लिया, क्यों की अब सामान DELHI में ही मिलना था। बैग पैक कर रेडी किया और नीचे आ गये सूप के बाद खाना खाया और सोने चले गये।

तेइसवाँ दिन :: 13/07/2014

धारचूला से मिर्थी, पिथौरागढ़

सुबह-सुबह हल्की ठण्ड लग रही थी। किन्तु नहाने के बाद अच्छा भी लग रहा था। यात्रियों के लिए गेस्ट हाऊस कैम्पस में एक बड़ी बस एवं एक मिनी बस खड़ी हुई थी। जिसमें सामान भी लद चुका था। डायनिंग हाल में आकर नास्ता किया और चाय ली। कुछ यात्री बोर्नविटा पीकर बस में बैठते जा रहे थे। ठीक 5.30 बजे ‘‘ओम नमः शिवाय” के उद्घोष के साथ हमारी बस गेस्ट हाऊस से रवाना हुई। सुबह होने वाली थी। बस काली नदी के किनारे चलती हुई मिरथी की ओर जा रही थी। हम मिरथी जाते समय एक दोराहे पर पहुँच गए। जहाँ से मिरथी जाने वाली सड़क पर आयटीबीपी की लाल झंडा लगी जीप खड़ी थी। वह जीप हमें लेने आयी हुई थी। हमारे ड्राइवर को अपने पीछे आने का इशारा करके आगे-आगे चलने लगी।

पौने नौ बजे हम मिरथी के आयटीबीपी बेस कैंप में प्रवेश कर गए। गेट से ही रिसीव करने के लिए रास्ते के दोनों ओर सिपाही पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे तो कमांडर इन चीफ़ श्री स्वयं स्वागत के लिए उपस्थित थे। फिर पास ही बने एक भवन में हमें ले जाया गया। उक्त भवन के गेट के पास ही कुछ फोटोग्राफ्स लगे हुए हैं। जिसे हम लोग देखे जिसमें हमारी कैलाश मानसरोवर यात्रा में जाते समय लिए गये स्वागत-सत्कार के फोटोग्राफस के अलावा सामूहिक फोटोग्राफ्स भी है। यात्रियों के लिये यहां नाश्ता का इंतजाम आईटीबीपी के द्वारा किया गया है। सभी यात्री यहां नाश्ता का आनन्द लिए, नाश्ता उपरांत हमें हाल में बिठाया गया। जहां सभी यात्रियों को कैलाश यात्रा एवं यात्रा के दौरान आईटीबीपी जवानों के द्वारा दी गई सहायता या असहयोग के बारे में फीड बैक देने हेतु फार्म दिया गया। जिसे भरकर वही जमा किए।

वह से हम पिथौरागढ़ के लिए रवाना हुए २ बजे तक हम पिथौरागढ़ पहुंच गये। बड़ा ही मनोरम स्थान है। और कुमाऊ मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस भी अच्छे स्थान पर है। वहाँ पहुँचते ही हमें बुरांश का शरबत मिला। और फिर फिर खाना खाया पिथौरागढ़ में रूम काफी अच्छा था।

यहाँ मैंने ग्रुप के तरफ से लैपटॉप ऑरेन्ज किया और HDD खरीद कर उसमे ग्रुप के सभी के कैमरे की फोटो ट्रांसफर की रात 12 बजे तक फोटो ट्रांसफर करते रहे।

बीच में खाना खा कर फोटो ट्रांसफर करते रहे। सुबहे एक कॉपी अनीता जी को ग्रुप की तरफ से इंटरनेट पर अपलोड करने को सौप दी।




चौबीसवाँ दिन : 14/07/2014

पिथौरागढ़ से पाताल-भुवनेश्वर, जागेश्वर

आज भी जल्दी उठना था सुबहे 4:०० बजे तक उठ गए। और स्नान आदि से निवृत होकर हम सुबहे ५:३० पर तैयार थे। आज का सफर काफी थकाने वाला और लंबा था। हम शिव स्तुति के बाद पाताल-भुवनेश्वर के लिए चले।

पाताल-भुवनेश्वर एक प्राचीन गुफ़ा है, जिसका प्रवेश-स्थान बहुत छोटा है। बहुत मोटे और लंबे-चौड़े या सांस फूलने से परेशान लोग वहाँ घुस नहीं पाते हैं। सतह से गुफा काफी गहरी एवं उतरने का रास्ता सकरा हैं जहां जनरेटर से प्रकाश व्यवस्था किया गया है। हम लोग कतार बद्ध होकर गुफा में प्रवेश करना प्रारंभ किए गुफा अत्यन्त सकरा एवं फिसलन युक्त है इसलिए लोहे का संकल लगाया है। जिसे पकड़कर ही नीचे उतरना पड़ता है। लोहे के सांकल के सहारे गुफा में हम लोग उतरे जहां पर ढलान जैसा बना हुआ था। पंडित जी द्वारा हमें गुफा के बारे में तथा गुफा में उत्कीर्ण उभरे हुए स्थानों के बारे में बताते हुए गुफा में और अंदर ले जाकर बताया गया। गुफा में उभरे हुए जिन आकृति के बारे में पंडित जी द्वारा बताया गया वे मुख्यतः क्रमशः आदि गणेश, शेष नाग, ब्रम्हा, विष्णु महेश, कल्पवृक्ष, ऐरावत हाथी तथा शिवलिंग है। पाताल भुवनेश्वर नाथ बताया गया। शिवलिंग के पास ही एक कुण्ड है जिसमें पानी भरा हुआ है।

उसी पानी से तथा पूजन सामग्री से उनके द्वारा शिवलिंग का अभिषेक हम यात्रियों से कराया गया। जिसमें शिवलिंग स्थापित है। वह ताम्रपत्र से सुरक्षित है। जिसे आदि शंकराचार्य द्वारा कैलाश दर्शन हेतु जाते समय कराया जाना बताया गया। गुफा में कुछ दूर और आगे जाने पर चार अलग-अलग रास्ते भी दिखाई दिए जिसे मानसरोवर व कैलाश जाने के लिए नजदीक एवं गुप्त मार्ग बताया गया, इस गुफा में पांडवों के आगमन की भी जानकारी दी गई इस प्रकार गुफा दर्शन पूर्ण कर हम लोग उसी सकरे चढ़ाई फिसलन वाले रास्ते से सांकल के सहारे चढ़कर गुफा के बाहर निकले। और लगभग चालीस मिनट अंदर ही पूरी गुफ़ा देखते रहे।

पाताल-भुवनेश्वर के पास में ही कुमंवि निगम के गेस्ट-हाऊस में हमारे दोपहर के भोजन का प्रबंध था। जहाँ सुस्वादु ताजा गर्मा-गर्म नास्ता किया और आगे बढ़ चले। हमारी बसें जागेश्वर के लिए चल पड़ीं। बस गोल-गोल रास्तों पर घूम रही थी।

शाम ५ बजे हमारी बस जागेश्वर पहुंची। हम अपना बैग उठाकर नीचे उतरे तो घुटने बिलकुल जाम हो गए थे। थकान से शरीर निढ़ाल हो रहा था गेस्ट-हाऊस के रिसेप्शन पर ही कुमविनि की ओर से ऊनी वस्त्रों की बिक्री हो रही थी। रूम में पहुंच कर सामान रख कर जागेश्वर मंदिर पहुँच गए। मंदिर में छोटे बड़े कुल एकसौ आठ देवालय बने हुए हैं।। सभी के अलग-अलग पुजारी हैं। मुख्य मंदिर पर दारुकवन ज्योतिर्लिंग लिखा
था। मंदिर प्रांगण में बने सभी मंदिरो में दर्शन कियेफिर सामूहिक शिव जलभिषेक पूजा की उस के पश्चात आरती कर, प्रभु के चरणों में ध्यान लगाया और प्रसाद ग्रहण किया।

मंदिर से वापिस गेस्ट-हाऊस आए रात्रि का भोजन कर सोने चले गए।



पच्चीसवाँ दिन :: 15/07/2014

जागेश्वर से दिल्ली

हम लोग सुबहे सुबहे तैयार हो कर ६ बजे मंदिर में थे। वह शिव लिंग पर जल चढ्या और पूजा अर्चना की और फिर गेस्ट हाउस में नास्ते के बाद शिव स्तुति के साथ यात्रा आरम्भ की।

बस थोड़ी दूर जा कर वृहत ‘जागेश्वर पे जा कर रुक गयी। हम सभी ने यहाँ देव दर्शन किये और शिव जयकारे के साथ आगे की यात्रा आरम्भ की। लौटते समय श्री हेमांग भाई ने चैतई मंदिर में घंटी चढ़ाई, बस अल्मोड़ा बाईपास से निकला कर काठगोदाम की तरफ बढ़ी रास्ते में हम ने अल्मोड़ा के बाज़ार में प्रसिद्ध बाल मिठाई और बुरांस के शर्बत की बॉटल्स खरीदी और आगे बढ गए।

दोपहर का भोजन काठगोदाम में था। हम काठगोदाम पहुंचे भोजन किया वहाँ कु.मं.वि.नि.की तरफ से अभिनन्दन समारोह में यात्रा पूर्ण होने पर उपहार स्वरुप कुमायूँनी आर्ट की प्रतिलिपि और कु.मं.वि.नि. सर्टिफिकेट दिया।

आगे की यात्रा के लिए काठगोदाम में कुमाऊ मंडल विकास निगम द्वारा एयर कंडीशन्ड बस थी। सभी यात्री वर्तमान बस को छोड़कर इस दूसरे बस में स्थान सुरक्षित किए और बस आगे चल दी। बस आगे गजरौला के पास रुकी वहां श्री गुलशन भाई अपने साथियो के साथ हमें नास्ता करने के लिए बाट जोह रहे थे। हम कृतघ्न है गुलशन भाई के अथितय और सेवा भाव के। श्री गुलशन भाई को शत शत नमन।

सात बजे हम गाज़ियाबाद के पास पहुँच गए थे। दिल्ली वासियो के घर से बार-बार फोन आ रहे थे। साढ़े नौ बजे हमारी बस दिल्ली गुजराती समाज में पहुँच गयी। हम जैसे ही उतरे दिल्ली वासियो के परिवारजनों ने हमें गले से लगा लिया। हम अंदर गए और श्री उदय कौशिक जी के कमरो में जा कर शिव लिंग को नमन किया। जिन्होंने कृपा करके अपने धाम बुलाया और सकुशल यात्रा संपूर्ण कराकर मेरा सपना सार्थक कराया। और प्रसाद ग्रहण किया श्री उदय जी ने सभी के लिए खाना बनवा रखा था। हम सभी ने थोड़ा सा भोजन किया। रात में रुकने की जगह सुनिश्चित की और आपने सामान ऊपर चढ़ाया। सुबहे सुबहे ५ बजे हमें ट्रैन पकड़ने के लिए निकलना था।

तो हम ने सभी कैलाशी भाइयो और बहनो से पुन: मिलने के वादे के साथ विदा मांगी। कुछ लोग चले थे उनसे विदाई मुलाकात न हो सकी पर सभी एक परिवार की तरह हमारे दिले में समाये हुए है ।

रात्रि में सामान को ट्रेन की यात्रा के अनुसार सेट किया और करीब १२ बजे सो गए आज कमरे में श्री आशुतोष जी के साथ श्री राजू भाई, श्री श्रीनी जी का सानिध्य प्राप्त हुआ।

मै और श्री आशुतोष जी करीब ४ बजे उठ गए और दैनिक नित्य कर्मा से निवृत हो कर स्नान किया। करीब ५ बजे अनीता जी हम से मिलाने आये हम सुबहे 5:15 पर अनीता जी, राजू भाई, श्रीनी जी से विदा ली और चलने के लिए पग बढ़ाये, तो हमारे कानो में श्री बाबू भाई द्वारा गए जाने वाली शिव स्तुति गूंज रही थी। वह नहीं थे वहां बोलने को, पर शिव स्तुति फिर भी गूंज रही थी। दिल नहीं कर रहा था परन्तु वापस आना भी सत्य ही था। शायद भोलेनाथ की साधना का यह भी एक स्वरूप है जिसे हमें स्वीकार करना होगा।

।।ॐ नमः शिवाय।।



विशाल पोरवाल

9936151024

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